सच की तलाश में शुरू हुआ सफ़र.....मंजिल तक पहुंचेगा जरुर !!!

AMIR KHURSHEED MALIK
Wednesday, December 31, 2014
Monday, December 29, 2014
अलविदा 2014
अलविदा 2014 ..... कुछ अच्छी , कुछ बुरी यादों के साथ 2014 को अब विदाई देने का समय अब करीब आ गया हैं ! यकीनन सब अच्छा नहीं हुआ होगा ! इसी तरह सब बुरा भी नहीं हुआ होगा ! पर अच्छे को सहेज कर हमको आगे जारी रखना है ! बुरे के अनुभवों से सीख लेकर उनको भी अच्छे में बदलना है ! जिससे एक अच्छा देश और समाज बनाने में हमारी भूमिका प्रभावी हो सके ! कुछ सवाल उठ सकते हैं कि पुराने वर्ष की विदाई और नव वर्ष का स्वागत हमारे धार्मिक मान्यताओं और अपेक्षाओं से मेल नहीं खाता है ! लेकिन जिस अंग्रेजी कैलेंडर के इर्द गिर्द हमने अपने जीवन को बाँध रखा है , उसके अनुसार सिर्फ शुभकामनाएं करना कदापि अनुचित नहीं होगा ! अच्छे की कामना को किसी भी बहाने से कर लीजिये ...... अच्छा ही होगा !
हार्दिक शुभकामनाये
Thursday, December 25, 2014
““यू टर्न”
मोदी सरकार 6
महीने गुजरने के साथ ही ““यू टर्न” सरकार” का तमगा हासिल
करने में कामयाब रही है। बीमा विधेयक हो या बांग्लादेश के साथ सीमा समझौता , एफडीआई
में विदेशी निवेश बढाने की नीति हो या नेताजी सुभाषचंद्र बोस की फाइलों के सच को
छुपाने की चाहत । आज भाजपा की सरकार वही कर रही है जो संप्रग सरकार करना चाहती थी ।
कालाधन , एफडीआई , पाक का मुंहतोड़ जवाब ,जैसे कई मुद्दों पर बीजेपी का रुख बदला
हुआ नज़र आरहा है । यह
कहना गलत ना होगा कि आज भाजपा सरकार अपने परंपरागत वादों से मुकरती नज़र आ रही है । उधर अगर
दुसरे पहलू पर देखें तो आज कई मुद्दों पर कांग्रेस की वही राय है ,जो
विपक्ष में रहते हुए भाजपा बोलती थी । हालाँकि सरकार का दावा है कि उसने छह महीने
में बहुत कुछ कर दिया है । भाजपा को एक के बाद एक चुनावी कामयाबी भी मिल रही है, लेकिन हर चुनावी
कामयाबी के बाद उम्मीदों की संख्या भी बढती जा रही है। सिर्फ 6 माह में हर उम्मीद
तो परवान नही चढ़ सकती पर ऐसे में बीजेपी के पुराने वायदों पर सबकी नज़र जाना
स्वभाविक है ।
Tuesday, December 23, 2014
बलात्कार अर्थात सामाजिक बेशर्मी
बलात्कार के अधिकतर
मामलों में महिला का कोई करीबी या जानकार बलात्कार के मामले में शामिल होता है ।
जिससे घटना को होने से पहले रोक पाने में पुलिस की भूमिका कम प्रभावी हो पाती है ।
लेकिन अगर त्वरित कार्यवाही और सजा के उदाहरण सामने हों । तो घटनाओं पर लगाम लग
सकती है । दुखदाई पहलु यह है कि पीडिता को ही समाज भी तिरस्कार देता है । जिससे
आरोपियों के होसले बुलंद होते हैं । कोई घटना होने पर सामाजिक संघटनो का प्रतिरोध
सड़कों पर नज़र आता है ।उस वक़्त कार्यवाही के लम्बे चौड़े वायदे होते हैं । तत्पश्चात
व्यवस्था फिर उसी ढर्रे पर सवार नज़र आती है । क्या हमें बार-बार बलात्कार की घटना हो जाने के बाद प्रतिवावद
और आंदोलन की जरूरत है ? आखिर क्यों नहीं
एक सशक्त कानून और उसका पालन करता तंत्र सामने आता ? आखिर क्यों नहीं हमारा समाज पीडिता के पक्ष में
, और आरोपी के विरोध में मजबूती के साथ नज़र आता
है ? सामाजिक बेशर्मी और प्रशासनिक शिथिलता के कारण
इसके उत्तर लापता हैं।
Saturday, December 20, 2014
जुल्मों-सितम की दास्तान बदस्तूर जारी
दिल्ली में हुए “उबेर टैक्सी काण्ड” के बाद एक बार फिर देश
में महिलाओं पर अनवरत जारी जुल्मों-सितम पर बहस छिड गई है। आज महिलाएं जहां एक ओर
अपनी योग्यता, पराक्रम और उद्यमशीलता से रोज नए प्रतिमान बना रही हैं, वहीं महिलाएं का एक बड़ा
हिस्सा शोषण, अत्याचार और हिंसा का शिकार हैं।दिन-प्रतिदिन बढ़ते मामलों ने घर से बाहर निकल
कर बराबरी की चाह रख रही महिलाओं को दुबकने पर मजबूर कर दिया है । आज
बलात्कार,शारीरिक शोषण से आगे बढ़ कर बात हत्या तक पहुँच चुकी है । कई बार इन
घटनाओं के इतने वीभत्स रूप सामने आते हैं कि उनको शब्दों में बयान नहीं किया जा
सकता ।
हमारी कानून का पालन कराने तथा न्याय दिलाने की प्रणालियां, बहुत ही खस्ता हालत में हैं। यह बहुत ही जरूरी है कि महिलाओं के खिलाफ ऐस अमानवीय जुर्म करने वालों को जल्दी से जल्दी सजा दिलाने के लिए, विशेष अदालतें कायम की जाएं।अदालतों और जजों की कम संख्या न्याय प्रक्रिया को लम्बा और दुरूह कर देते हैं | हमारे देश में अपराध के लिए सजा दिए जाने का रिकार्ड इतना खराब होने के चलते ही, अपराधियों के मन में अब कानून का कोई डर ही नहीं रह गया है।आबादी और पुलिस का अनुपात, दुनिया भर में सबसे निचले स्तर पर है। जब तक कानून का पालन कराने वाले बलों की कतारों में उल्लेखनीय बढ़ोतरी करने तथा उन्हें समुचित प्रशिक्षण मुहैया कराने के लिए कदम नहीं उठाए जाते हैं, हालात सुधारने वाले नहीं हैं । आप को जान कर हैरानी होगी कि 2011 में बलात्कार के दर्ज हुए मामलों में से पूरे 36 फीसदी से अधिक में तो कोई जांच भी अब तक पूरी नहीं हो पायी है। तो फिर 2011 के बाद के मामलों की क्या स्थिति होगी इसका अंदाज़ आप खुद लगा सकते हैं।
हमारी कानून का पालन कराने तथा न्याय दिलाने की प्रणालियां, बहुत ही खस्ता हालत में हैं। यह बहुत ही जरूरी है कि महिलाओं के खिलाफ ऐस अमानवीय जुर्म करने वालों को जल्दी से जल्दी सजा दिलाने के लिए, विशेष अदालतें कायम की जाएं।अदालतों और जजों की कम संख्या न्याय प्रक्रिया को लम्बा और दुरूह कर देते हैं | हमारे देश में अपराध के लिए सजा दिए जाने का रिकार्ड इतना खराब होने के चलते ही, अपराधियों के मन में अब कानून का कोई डर ही नहीं रह गया है।आबादी और पुलिस का अनुपात, दुनिया भर में सबसे निचले स्तर पर है। जब तक कानून का पालन कराने वाले बलों की कतारों में उल्लेखनीय बढ़ोतरी करने तथा उन्हें समुचित प्रशिक्षण मुहैया कराने के लिए कदम नहीं उठाए जाते हैं, हालात सुधारने वाले नहीं हैं । आप को जान कर हैरानी होगी कि 2011 में बलात्कार के दर्ज हुए मामलों में से पूरे 36 फीसदी से अधिक में तो कोई जांच भी अब तक पूरी नहीं हो पायी है। तो फिर 2011 के बाद के मामलों की क्या स्थिति होगी इसका अंदाज़ आप खुद लगा सकते हैं।
Friday, December 19, 2014
Thursday, December 18, 2014
Thursday, December 11, 2014
ज़हरीले बयानों की राजनीति
ज़हरीले बयानों के ज़रिये
ध्रुवीकरण की कोशिश हो , या बेहूदा बयानों से किसी के ज़ख्मों पर नमक छिड़कने की
हरकत हो , सामूहिक निंदा की आवाज़ आनी ही चाहिए । गर्म होती फिजाओं के दरमियाँ समाज की साझा विरासत और अमन
को नुकसान पहुंचाने की कोशिशों को नज़रंदाज़ करना मुनासिब नहीं है । सामान्य नागरिकों को उकसाने की यह कोशिशे लोकतंत्र की
मूलभावना के खिलाफ है । परन्तु अफ़सोस , वोट के फायदे के गणित के आगे सही-गलत का
आंकलन बौना साबित हो रहा है । रही सही कसर चैनल
की ब्रेकिंग न्यूज़ की लगातार चिल्लाती आवाज़ ने पूरी कर दी है । इन सब चीजों से ध्रुवीकरण कितना हुआ या नहीं , यह बताना तो
मुश्किल है । पर अमन के दरमियाँ कुछ नए
नफरत के बीज बोने में यह कामयाब ज़रूर हो गए । जब बात चैनल पर ब्रेकिंग न्यूज़ में सुर्खियाँ पाने की हो तो कई नाम
आगे आ जाते हैं । सो दे दिया एक
विवादस्पद बयान और बन गई सुर्खियाँ ।
क्या इन नेताओं का मकसद
सिर्फ दलीय राजनीति का परचम फहराना ही रह गया है ? जब देश आर्थिक विकास के दोराहे
पर खड़ा हो कर किसी सशक्त नीति की आस देख रहा है , हमारे राजनीतिक दल सिर्फ सत्ता
में आने के ख्वाब पाल कर जायज़-नाजायज़ के फर्क को अनदेखा कर हर रास्ता अपनाने को
तैयार हैं । राजनीतिक दलों की सोच सिर्फ कुर्सी तक सीमित हो गई है , शायद वह सोचते
हैं कि सत्ता पा लो । देश का तो बाद में सोचेंगे । जिस आज़ादी को हमने बड़ी-बड़ी
कुर्बानियों के बाद हासिल किया है , उसकी कीमत का अंदाज़ा शायद इन लोगो को नहीं है।
इन लोगो को यह समझाना जरुरी हो चला है कि आपके काम के साथ हम आपकी भाषा पर भी नज़र
रखेंगे । ताकि यह लोग हमारे बीच कोई दरार पैदा करके स्वार्थ सिद्ध ना कर सके । देश
को रचनात्मक प्रयासों की जरुरत है , ना कि ज़हर बूझे बयानों की । नफरत को इन ज़हरीले
बयानों से हवा दी जा सकती है , तरक्की को नहीं । विकास ,अमन और चैन के दरमियाँ ही
पनप सकता है , ज़हरीले बयानों के बीच नहीं ।
और अब ज़िम्मेदारी हम सबके ऊपर है ।
Tuesday, December 9, 2014
कालाधन : प्रबल इच्छा शक्ति का अभाव
विदेशों में कालाधन रखनेवाले
कुछ नामों को बताने में सरकार के संकोच और इस संबंध में सिर्फ राजनीति से यह मुद्दा
कालेधन को वापस लाने और दोषियों को दंडित करने के उद्देश्य से भटक कर आरोप-प्रत्यारोप
तक सिमट कर रह गया है । ऐसे में कालाधन वापस आने का सपना संजोये लोगो की
तीखी प्रतिक्रिया भी स्वाभाविक है। स्विस बैंकों के अलावा भी कई देशों में कालाधन
छुपाया गया है । भारतीयों द्वारा विदेश में जमा संदिग्ध कालेधन के एक और मामले में
जांच एजेंसियां 600 नए नामों और पहचानों की जांच कर रही है। जिनकी सूची पिछले वित्त
वर्ष में एक ‘सूत्र’ ने भारत को प्रदान की थी। जिन लोगों ने विदेशी बैंकों में काला धन जमा
किया है, वे आम भारतीय नागरिक नहीं हैं, बल्कि काला धन जमा करने वाले लोगों में देश के
बड़े-बड़े नेता, प्रशासनिक अधिकारी और उद्योगपति शामिल हैं। इस संबंध में किस सरकार ने कितनी कोशिश की, इन कोशिशों का नतीजा
क्या निकला और आगे सरकार क्या-क्या उपाय करनेवाली है, इन सवालों के जवाब
न तो यूपीए सरकार के पास थे और न ही एनडीए सरकार के पास ही हैं । सबसे बड़ा सवाल ये है कि देश की जनता की नामों में
दिलचस्पी तो है लेकिन वो ये भी जानना चाहती है कि पैसे कब आएंगे। क्या विदेश से पैसे
लाना सही में काफी मुश्किल काम है ? और क्या नाम में उलझा कर बीजेपी सिर्फ अपने चुनावी
वादे को पूरा करने की रस्म भर निभा रही है ? अगर इस काले धन का 10 प्रतिशत हिस्सा भी
भारत में आ जाए, तो उससे भारतीय अर्थव्यवस्था को काफी फायदा हो सकता है ।
ऐसे में गंभीर प्रयास होना जरूरी हैं । काले धन को वापस लाया जा सकता है, लेकिन इसके लिए जरूरी
है कि सरकार प्रबल इच्छा शक्ति का परिचय दे।
Monday, December 8, 2014
बदलापुर बॉयज : मजहर खान
उत्तरप्रदेश का छोटा सा जिला शाहजहांपुर रंगमंच और रुपहले परदे
पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराने से नहीं चूकता । अपने सशक्त एवं समर्थ रंगमंच की धमक पूरे देश
में बिखेरने वाले शाहजहांपुर ने मजहर खान नामक एक नया सितारा बालीवुड के हवाले
किया है । जिनकी आने वाली फिल्म “बदलापुर बॉयज” उनके भविष्य के लिए महत्वपूर्ण साबित होने वाली है । लेखक
निर्देशक शैलेश वर्मा की इस फिल्म में कबड्डी खेल से गाँव की एक बड़ी समस्सया हल
करने वाले युवकों की कहानी है। “कर्म मूवीज” के बैनर तले बन रही इस फिल्म में वास्तविक ग्रामीण
पृष्ठभूमि का छायांकन शैलेश वर्मा की विशेष उपलब्धि है । लेकिन आधुनिक फिल्मों के
सभी नाच-गाने से लेकर रोमांस का तड़का अपनी जगह मौजूद है । ऐसे में ग्रामीण
पृष्ठभूमि से जुड़े होने के बाद भी दर्शकों के लिए किसी मसाले की कमी महसूस नहीं
होगी । फिल्म में कबड्डी कोच की भूमिका अन्नू कपूर निभा रहे हैं । शैलेश वर्मा के
लिए भले ही बतौर निर्देशक यह पहली फिल्म हो, लेकिन वो बतौर लेखक कई बड़ी फिल्मों के
साथ जुड़े रह चुके हैं ।
मजहर खान इससे पहले विशाल वर्मा के निर्देशन में आदर्श नगर,
राजश्री प्रोडक्शन की “लव यू मिस्टर कलाकार”, सहित “देख इंडियन सर्कस”, ”रज्जो”, में भी काम कर
चुके हैं । फेस्टिवल फिल्म “द कनेक्शन”, “संशोधन”,”गोल्डन पॉकेट वाच”, “उषा”, आदि में में भी
हम उनसे रूबरू हो चुके हैं ज़ी टीवी के सीरियल “भागोंवाली” में उनकी भूमिका “टिल्लू”, “डोली अरमानों की” में “मुक्ति” , चर्चा में हैं
भारतेंदु नाट्य अकादमी से नाट्य विधा में डिप्लोमा प्राप्त कर चुके मजहर खान पुणे के एफटीआईआई से प्रशिक्षित भी हैं ! (आमिर खुर्शीद मलिक )
भारतेंदु नाट्य अकादमी से नाट्य विधा में डिप्लोमा प्राप्त कर चुके मजहर खान पुणे के एफटीआईआई से प्रशिक्षित भी हैं ! (आमिर खुर्शीद मलिक )
Thursday, December 4, 2014
Tuesday, December 2, 2014
हमारी विरासत : पंडित मौलाना डॉ. बशीरूद्दीन कादरी
रूहेलखंड के छोटे से शहर शाहजहांपुर ने एकता और विद्वता के अनेको अनमोल रत्न भारत को समर्पित किये हैं , जिनकी याद करके ही हम अपनी विरासत पर गौरव का अनुभव कर लेते हैं । इनमे से एक महत्वपूर्ण नाम है , पंडित मौलाना डॉ. बशीरूद्दीन कादरी का ।
11 भाषाओं के विद्वान पंडित बशीरुद्दीन ने धार्मिक समभाव का सन्देश देने के लिए जिस बुनियादी काम को अंजाम दिया उसकी मिसाल विरले ही मिलती है । उन्होंने हदीस, कुरआन, वेदों और गीता का गूढ़ अध्ययन किया और उनसे संबंधित हजारों अन्य पुस्तकें पढ़ने के बाद संस्कृत में कुरआन और अरबी में गीता का अनुवाद किया। इन दोनों ग्रंथों पर इस प्रकार का वह पहला अनुवाद था। अभी तक किसी और ने तो ऐसा किया नहीं है।।दरअसल उनको अरबी और संस्कृत में सामान रूप से अधिकार था। उनको गीता और कुरआन दोनों कंठस्थ थे। इतिहास के भी अच्छे जानकार पंडित बशीरुद्दीन ने इतिहास पुस्तिका तारीख-ए-हिंदी की भी रचना की। यह पुस्तक अलीगढ़ विश्वविद्यालय की स्नातक कक्षाओं में आज भी पढ़ाई जाती है। विश्वविद्यालय के प्रसिद्ध इतिहासकार प्रो. इरफान हबीब मानते हैं कि इतिहास पर यह पुस्तक मील का पत्थर साबित हुई है।
पंडित बशीरुद्दीन का जन्म 20 अक्तूबर 1900 को शाहजहांपुर में हुआ था । उनके पिता मौलवी खैरूद्दीन बदायूं के लिलमा गांव की प्रारंभिक पाठशाला में अध्यापक थे। यहाँ से प्रारंभिक शिक्षा ग्रहण करने के पश्चात् पंडित बशीरुद्दीन ने अपनी तेजस्वी छवि और प्रतिभा का परिचय देते हुए इसी कस्बे से हाईस्कूल पास किया और 1922 में इंटर की परीक्षा में बरेली इंटर कॉलेज में प्रथम स्थान प्राप्त किया। बचपन में ही अपने ज्ञान और अद्भुत क्षमताओं से उन्होंने सबको आश्चर्य में डाल दिया था । उन्होंने स्नातक एवं स्नातकोत्तर अलीगढ़ से किया । फिर पी-एच.डी. अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से ही की। इसके पश्चात् उर्दू, हिंदी, अंग्रेजी, फारसी और अरबी में निपुणता प्राप्त की। पंडित बशीर की अरबी की दक्षता देख तो विश्वविद्यालय के प्रोफेसर भी दंग रह गए। किसी श्लोक में उपसर्ग या हलंत या किसी आयत के उच्चारण में सुधार कराने के लिए उनके पास बड़े-बड़े विद्वान भी आया करते थे। गीता और कुरआन पर व्याख्यान देने के लिए अक्सर उन्हें मंदिरों व मस्जिदों में आमंत्रित किया जाता था।
गरीबी से जूझते इस विद्वान को अपने कृतित्व के प्रकाशन के लिए बहुत परेशानी उठानी पड़ी ।तीन भाग में लिखी गई तारीख-ए-हिंदी के तीसरे भाग का प्रकाशन वह नहीं करा पाए , जिसका मलाल उनको जीवन भर रहा । शहर के ही एक इंटर कालेज में अध्यापन करके जीवन यापन करने वाले पंडित बशीरुद्दीन और उनके परिवार को को फंड और पेंशन जैसे मामलो में भी उपेक्षा का शिकार होना पड़ा , जोकि बहुत ही दुखद पहलु है ।12 फरवरी 1988 को हम सबसे विदा हुए पंडित जी अपने पीछे पुस्तकों का अनमोल खजाना छोड़ गए थे , जिसको सहेजने वाला कोई सामने नहीं आया । सरकारी मदद की गुहार भी खाली ही गई । आखिर में उनके छोटे बेटे जफरूद्दीन कादरी ने जैसे तैसे इस दायित्व को निभाया । जीवन भर आत्मसम्मान की खातिर परेशानियों का सामना करने वाले पंडित बशीरुद्दीन जी को उनके स्तर के अनुरूप सम्मान और पहचान नहीं मिल पाई । इनके पुत्र हाफिज मुईजुद्दीन कादरी, जो कि चंदौसी में अध्यापक हैं, ने सरकार से निवेदन किया था कि उनके विद्वान पिता के नाम पर शाहजहांपुर में एक सड़क का नाम रख दिया जाए, तो आज तक इस पर कोई विचार नहीं हुआ । शाहजहांपुर शहीदों और वतन पर मिटने वालों की ही नगरी ही नहीं , अपितु मार्तंड विद्वानों का वतन होने का गौरव भी उसे प्राप्त है। दुखद स्थिति यह है की धार्मिक एकता के सतही काम करके भी तमाम लोगो ने मंचीय तालियाँ और तमगे बटोर लिए , पर ज़मीन से जुड़ा और ठोस काम करने वाले पंडित बशीरुद्दीन आज गुमनामी के अंधेरों के हवाले हैं । मिट्टी की चिनाई और खपरैल की छत वाले मकान में रह कर इतनी मजबूत अमनपसंदीदा साहित्यिक विरासत का महल बना कर जुदा हुए इस महानायक के काम को हम अमन पसंदों का सलाम !
11 भाषाओं के विद्वान पंडित बशीरुद्दीन ने धार्मिक समभाव का सन्देश देने के लिए जिस बुनियादी काम को अंजाम दिया उसकी मिसाल विरले ही मिलती है । उन्होंने हदीस, कुरआन, वेदों और गीता का गूढ़ अध्ययन किया और उनसे संबंधित हजारों अन्य पुस्तकें पढ़ने के बाद संस्कृत में कुरआन और अरबी में गीता का अनुवाद किया। इन दोनों ग्रंथों पर इस प्रकार का वह पहला अनुवाद था। अभी तक किसी और ने तो ऐसा किया नहीं है।।दरअसल उनको अरबी और संस्कृत में सामान रूप से अधिकार था। उनको गीता और कुरआन दोनों कंठस्थ थे। इतिहास के भी अच्छे जानकार पंडित बशीरुद्दीन ने इतिहास पुस्तिका तारीख-ए-हिंदी की भी रचना की। यह पुस्तक अलीगढ़ विश्वविद्यालय की स्नातक कक्षाओं में आज भी पढ़ाई जाती है। विश्वविद्यालय के प्रसिद्ध इतिहासकार प्रो. इरफान हबीब मानते हैं कि इतिहास पर यह पुस्तक मील का पत्थर साबित हुई है।
पंडित बशीरुद्दीन का जन्म 20 अक्तूबर 1900 को शाहजहांपुर में हुआ था । उनके पिता मौलवी खैरूद्दीन बदायूं के लिलमा गांव की प्रारंभिक पाठशाला में अध्यापक थे। यहाँ से प्रारंभिक शिक्षा ग्रहण करने के पश्चात् पंडित बशीरुद्दीन ने अपनी तेजस्वी छवि और प्रतिभा का परिचय देते हुए इसी कस्बे से हाईस्कूल पास किया और 1922 में इंटर की परीक्षा में बरेली इंटर कॉलेज में प्रथम स्थान प्राप्त किया। बचपन में ही अपने ज्ञान और अद्भुत क्षमताओं से उन्होंने सबको आश्चर्य में डाल दिया था । उन्होंने स्नातक एवं स्नातकोत्तर अलीगढ़ से किया । फिर पी-एच.डी. अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से ही की। इसके पश्चात् उर्दू, हिंदी, अंग्रेजी, फारसी और अरबी में निपुणता प्राप्त की। पंडित बशीर की अरबी की दक्षता देख तो विश्वविद्यालय के प्रोफेसर भी दंग रह गए। किसी श्लोक में उपसर्ग या हलंत या किसी आयत के उच्चारण में सुधार कराने के लिए उनके पास बड़े-बड़े विद्वान भी आया करते थे। गीता और कुरआन पर व्याख्यान देने के लिए अक्सर उन्हें मंदिरों व मस्जिदों में आमंत्रित किया जाता था।
गरीबी से जूझते इस विद्वान को अपने कृतित्व के प्रकाशन के लिए बहुत परेशानी उठानी पड़ी ।तीन भाग में लिखी गई तारीख-ए-हिंदी के तीसरे भाग का प्रकाशन वह नहीं करा पाए , जिसका मलाल उनको जीवन भर रहा । शहर के ही एक इंटर कालेज में अध्यापन करके जीवन यापन करने वाले पंडित बशीरुद्दीन और उनके परिवार को को फंड और पेंशन जैसे मामलो में भी उपेक्षा का शिकार होना पड़ा , जोकि बहुत ही दुखद पहलु है ।12 फरवरी 1988 को हम सबसे विदा हुए पंडित जी अपने पीछे पुस्तकों का अनमोल खजाना छोड़ गए थे , जिसको सहेजने वाला कोई सामने नहीं आया । सरकारी मदद की गुहार भी खाली ही गई । आखिर में उनके छोटे बेटे जफरूद्दीन कादरी ने जैसे तैसे इस दायित्व को निभाया । जीवन भर आत्मसम्मान की खातिर परेशानियों का सामना करने वाले पंडित बशीरुद्दीन जी को उनके स्तर के अनुरूप सम्मान और पहचान नहीं मिल पाई । इनके पुत्र हाफिज मुईजुद्दीन कादरी, जो कि चंदौसी में अध्यापक हैं, ने सरकार से निवेदन किया था कि उनके विद्वान पिता के नाम पर शाहजहांपुर में एक सड़क का नाम रख दिया जाए, तो आज तक इस पर कोई विचार नहीं हुआ । शाहजहांपुर शहीदों और वतन पर मिटने वालों की ही नगरी ही नहीं , अपितु मार्तंड विद्वानों का वतन होने का गौरव भी उसे प्राप्त है। दुखद स्थिति यह है की धार्मिक एकता के सतही काम करके भी तमाम लोगो ने मंचीय तालियाँ और तमगे बटोर लिए , पर ज़मीन से जुड़ा और ठोस काम करने वाले पंडित बशीरुद्दीन आज गुमनामी के अंधेरों के हवाले हैं । मिट्टी की चिनाई और खपरैल की छत वाले मकान में रह कर इतनी मजबूत अमनपसंदीदा साहित्यिक विरासत का महल बना कर जुदा हुए इस महानायक के काम को हम अमन पसंदों का सलाम !
सामाजिक बेशर्मी बनाम प्रशासनिक शिथिलता
एनसीआरबी के 1953 से लेकर 2011 तक के अपराध के
आंकड़े चौंकाने वाले हैं। 1971
के बाद से देश में बलात्कार की घटनाएं 873.3 फीसदी तक बढ़ी हैं। इसके अलावा उन मामलों की
फेरहिस्त भी काफी लंबी है जिनकी शिकायत थाने तक पहुंची ही नहीं या पहुंचने ही नहीं
दी गई। बलात्कार के अधिकतर
मामलों में महिला का कोई करीबी या जानकार बलात्कार के मामले में शामिल होता है ।
जिससे घटना को होने से पहले रोक पाने में पुलिस की भूमिका कम प्रभावी हो पाती है ।
लेकिन अगर त्वरित कार्यवाही और सजा के उदाहरण सामने हों । तो घटनाओं पर लगाम लग
सकती है । दुखदाई पहलु यह है कि पीडिता को ही समाज भी तिरस्कार देता है । जिससे
आरोपियों के होसले बुलंद होते हैं । कोई घटना होने पर सामाजिक संघटनो का प्रतिरोध
सड़कों पर नज़र आता है ।उस वक़्त कार्यवाही के लम्बे चौड़े वायदे होते हैं । तत्पश्चात
व्यवस्था फिर उसी ढर्रे पर सवार नज़र आती है । क्या हमें बार-बार बलात्कार की
घटना हो जाने के बाद प्रतिवावद और आंदोलन की जरूरत है ? आखिर क्यों नहीं
एक सशक्त कानून और उसका पालन करता तंत्र सामने आता ? आखिर क्यों नहीं
हमारा समाज पीडिता के पक्ष में , और आरोपी के विरोध में मजबूती के साथ नज़र आता
है ? सामाजिक बेशर्मी और
प्रशासनिक शिथिलता के कारण इसके उत्तर लापता हैं।
Sunday, November 30, 2014
क्रांतिकारी साहित्य का विशिष्ठ नाम : सुधीर “विद्यार्थी”
आइये आज रूबरू होते हैं किसी ऐसे नाम से ,जिसमें देश के स्वतंत्रता संग्राम
को उसके वास्तविक स्वरुप के साथ उकेरने का जूनून हो । जो सफल नाटककार हो, अभिनेता, लेखक,कवि जैसे
अनगिनत नैसर्गिक तमगे उसमें अपने विशिष्ठ स्वरुप में विराजमान हों । यकीनन ऐसे विलक्षण पैमाने पर सुधीर “विद्यार्थी”
जैसा नाम ही सटीक बैठता है । क्रांतिकारी साहित्य
से अलख जगाने वाला यह लेखक श्रमिक आन्दोलन से लेकर सामाजिक मुद्दों पर भी अपनी
बेबाक टिप्पणियों के लिए जाना जाता है । “भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन का सही मूल्यांकन नहीं हुआ है” ऐसा मानने वाले
सुधीर “विद्यार्थी” ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की परतों को ज़मीनी स्तर पर जा कर
ढूंढा है पैदल यात्रा हो या साइकिल से दूर दराज़ के क्षेत्र में खोजबीन , सुधीर “विद्यार्थी”
नें कोई कसर नहीं छोड़ी । यही कारण है कि क्रांतिकारी साहित्य में उनकी खोज और
कृतित्व अपना बेमिसाल स्थान रखते हैं । इन किताबों और लेखों से शहीदों की दुर्लभ
जानकारियाँ लोगों तक पहुँच पाई । शहीदों के परिवारों तक पहुँच कर उनको आर्थिक
सहायता और सही पहचान दिलवाने में भी उनके प्रयास अनूठे रहे हैं । यकीनन इन सबके
लिए जिस इन्क़लाबी तेवरों की ज़रूरत होती है , वह सुधीर “विद्यार्थी” के अन्दर हैं ।
1 अक्टूबर 1953 को जन्में सुधीर “विद्यार्थी” का पूरा
जीवन भारत की क्रांति गाथा को समर्पित रहा । सुधीर “विद्यार्थी” नें अशफाकउल्ला, रोशन सिंह , भगत सिंह , मौलवी अहमदुल्लाह शाह,बटुकेश्वर
दत्त और चंद्रशेखर आज़ाद जैसे कई शहीदों और क्रांतिकारियों पर दर्जनों किताबे लिखीं
हैं । उनके कृतित्व में क्रांतिकारी विरासत को सच्चाई को अगली पीढ़ी तक सही रूप में
पहुचाने का जुनून साफ़ नज़र आता है । उनकी प्रमुख कृतियों में अशफाकउल्ला और उनका
युग, शहीद रोशन सिंह ,उत्सर्ग,भगत सिंह की सुनें, आमादेर विप्लवी, शहीद मौलवी
अहमदुल्लाह शाह,काला पानी का ऐतिहासिक दस्तावेज़,अग्निपुंज जैसे अनगिनत नाम शामिल
है । अपराजेय योद्दा कुंवर भगवान सिंह,मेरा राजहंस,शहीदों के हमसफ़र,गदर पार्टी से
भगतसिंह, क्रांतिकारी बटुकेश्वर दत्त,आज
का भारत और भगतसिंह, क्रांति की इबारतें आदि से उनको काफी चर्चा मिली । एनसीआरटी
की कक्षा 11 की पुस्तक साहित्य मञ्जूषा में क्रांति की प्रतिमूर्ति : दुर्गा भाभी,
तथा कक्षा 5 में शहीद रोशन सिंह लेख पाठ्यक्रम में सम्मिलित किये गए हैं । विभिन्न विश्वविद्यालयों में क्रांतिकारी आन्दोलन पर उनके व्याख्यान सराहे
जा चुके हैं । शाहजहांपुर में शहीद
रामप्रसाद बिस्मिल,रोशनसिंह, अशफाक़उल्ला खां, मौलवी अहमदुल्लाह शाह के स्मारकों के
निर्माण के लिए उनके प्रयास हम सब जानते हैं। बीसलपुर में शहीद चंद्रशेखर आज़ाद की प्रतिमा और
पार्क का निर्माण, बरेली में क्रांतिकारी
दामोदर स्वरुप सेठ एवं ठाकुर पृथ्वी सिंह उद्यान का निर्माण उनके संघर्ष की
उपलब्धियों में शामिल हैं । 1979 में शाहजहांपुर
में अखिल भारतीय क्रांतिकारी सम्मलेन उनके इस संघर्ष की नीव मानी जा सकती है। उन्होंने 1981 में समाचारपत्र
“साथी” के चंद्रशेखर आज़ाद विशेषांक, साहित्यिक पत्रिका “संदर्श”, में संपादन में
भी अपने जौहर दिखाए हैं । उनका एक अलग पहलू
अभिनय भी है । उन्होंने लगातार 20
वर्षों तक नुक्कड़ नाटकों के माध्यम से समाज के हर तबके से सीधे संवाद स्थापित किया
है। शाहजहांपुर की नाट्य संस्था “विमर्श” के वह
अध्यक्ष भी रहे ।
क्रांतिकारी आन्दोलन के इतिहास लेखन के लिए उन्हें
1997 का “परिवेश सम्मान” और 2013 का “गणमित्र सम्मान” दिया गया । उनको लेखन के लिए “शमशेर सम्मान” और “अयोध्या प्रसाद खत्री सम्मान” मिला । उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर
रूहेलखंड विश्वविद्यालय में शोध प्रबंध किया जा चूका है । कविता भारत के सम्पादन में उन पर केन्द्रित एक पुस्तक “ जमीन को देखती
आँखें” प्रकाशित हो चुकी है । हम सब उनकी आने वाली
पुस्तकों “क्रान्ति की ज़मीन पर” , “भगत सिंह : एक विमर्श” ,”क्रांतिकारी आन्दोलन :
एक पुनर्पाठ” का बेसब्री से इंतज़ार कर रहे हैं। जिनमें यकीनन इतिहास के कुछ अनखुले पन्नो से हम
रुबरू हो सकेंगें ।
Friday, November 28, 2014
महिला उत्पीडन : हालात बदहाल
आज बलात्कार,शारीरिक शोषण से आगे बढ़ कर बात हत्या तक पहुँच चुकी है । कई बार
इन घटनाओं के इतने वीभत्स रूप सामने आते हैं कि उनको शब्दों में बयान नहीं किया जा
सकता । महिलाओं की सुघड़ता, कुशलता, प्रखरता एवं योग्यता
के बदले उसके रंग-रूप, यौवन, की मानसिकता हावी हो
गई है।और इसी कुत्सित मानसिकता का भयावह
दुष्परिणाम आज हमारे सामने बलात्कार, अत्याचार, कन्या भ्रूण हत्याएं एवं
नारी हिंसा के रूप में सामने आया है । पिछले कुछ दिनों पर नज़र डालें तो हरियाणा,
उत्तर प्रदेश,छत्त्तीसगढ़ ,मध्यप्रदेश ,राजस्थान
,पश्चिम बंगाल, मिजोरम सहित देश के अलग अलग कोने में नारी के पुरुषों की हवस का
शिकार बनने की ख़बरें आई हैं | देश में मे महिलाओ पर
ज़ुल्म और रेप की घटनाओ से इंसानियत शर्मसार हुई है। स्वयं सर्वोच्च न्यायालय का कहना है कि
बलात्कार से पीड़ित महिला बलात्कार के बाद स्वयं अपनी नजरों में ही गिर जाती है, और जीवनभर
उसे उस अपराध की सजा भुगतनी पड़ती है, जिसे उसने नहीं किया।
ऐसी स्थिति में सामाजिक प्रताड़ना से इनकार नहीं किया जा सकता । उस पर आरोपियों से
पहले घर-परिवार से ही दबाव बनना शुरू हो जाता है । लेकिन इस सब के बीच हैं आंकड़ों का सच, जो बताते हैं कि भारत में महिलाओं के खिलाफ़ होने वाले
अपराधों के अलावा अभियुक्तों के विरुद्ध पुख्ता सबूत न होने की वजह से भी उनकी
रिहाई हो जाती है।
आंकड़े बताते हैं कि 97 फीसदी मामलों में
आरोपी महिला का जानकार होता है। उसमे से भी 40 फीसदी करीबी रिश्तेदार या पडोसी
होते हैं । विशेषज्ञों की राय में यह एक सामाजिक समस्या है और ऐसे अपराधों पर नकेल
कसने के लिए रणनीति बनाना मुश्किल काम है। दुसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि यह
एक सामाजिक समस्सया है। जिसका वास्तविक हल समाज के बीच से ही आ सकता है । जब
पीडिता दबाव और तिरस्कार का सामना करती है , दोषी के बच निकलने के आसार और बढ़ जाते
हैं |
कोई घटना होने पर सामाजिक संघटनो का प्रतिरोध सड़कों पर नज़र आता है ।उस वक़्त कार्यवाही के लम्बे चौड़े वायदे होते हैं । तत्पश्चात व्यवस्था फिर उसी ढर्रे पर सवार नज़र आती है । क्या हमें बार-बार बलात्कार की घटना हो जाने के बाद प्रतिवाद और आंदोलन की जरूरत है ? आखिर क्यों नहीं एक सशक्त कानून और उसका पालन करता तंत्र सामने आता ? आखिर क्यों नहीं हमारा समाज पीडिता के पक्ष में , और आरोपी के विरोध में मजबूती के साथ नज़र आता है ?
कोई घटना होने पर सामाजिक संघटनो का प्रतिरोध सड़कों पर नज़र आता है ।उस वक़्त कार्यवाही के लम्बे चौड़े वायदे होते हैं । तत्पश्चात व्यवस्था फिर उसी ढर्रे पर सवार नज़र आती है । क्या हमें बार-बार बलात्कार की घटना हो जाने के बाद प्रतिवाद और आंदोलन की जरूरत है ? आखिर क्यों नहीं एक सशक्त कानून और उसका पालन करता तंत्र सामने आता ? आखिर क्यों नहीं हमारा समाज पीडिता के पक्ष में , और आरोपी के विरोध में मजबूती के साथ नज़र आता है ?
Thursday, November 27, 2014
निर्यात आवश्यक , पर देशी मूल्य वृद्धि की कीमत पर नही
पिछले चार वर्षों के दौरान अंडे, फलों, दूध, सब्ज़ियों और दूध के दामों में जबर्दस्त बढ़ोतरी हुई है। मांस और मछली के दाम में तो यह और भी ज्यादा है । मांग और आपूर्ति के बीच सामंजस्य भी गड़बड़ाया है । भारत में बहुत सारा अनाज
अपर्याप्त और कम गुणवत्ता वाली भंडारण सुविधाओं के चलते सड़ जाता है । हमारे देश
में इससे बड़ी विडम्बना क्या हो सकती है कि एक तरफ गोदामों में अनाज सड़ रहा है और
दूसरी तरफ लोग भुखमरी का शिकार हो रहे हैं। हाल ही में ब्रिटेन स्थित मैकेनिकल
इंजीनियर्स इंस्टीट्यूशन द्वारा एक ताज़ा रिपोर्ट में बताया था कि भारत में हर साल
खेत से ग्राहकों तक पहुँचने के दौरान अपर्याप्त कोल्ड स्टोरों के कारण 40 प्रतिशत फल औऱ सब्जियां ख़राब हो जाते हैं । इस समस्सया से सरकार को जूझना ही
होगा । वरना जमाखोरों के वर्चस्व को नकारना असंभव होगा । शुरूआती दौर में
इन्वेस्टमेंट के बाद इस योजना के दीर्घकालिक परिणाम बहुत अच्छे हो सकते हैं । देश
में दुग्ध उत्पाद की कमी है किंतु निर्यात बदस्तूर जारी है। देश के लोग कृषि
उत्पादों की महंगाई से बेहद त्रस्त हैं, किंतु कृषि उत्पादों का
निर्यात तेजी से बढ़ रहा है। विदेशी मुद्रा के लिए
निर्यात आवश्यक है , पर देशी मूल्य वृद्धि की कीमत पर इसको सराहा नहीं जा सकता ।
काला धन : सफ़ेद बोल
वैश्विक मंदी से दुनिया को बचाने के लिए आज पूरे विश्व के देशों
को लगता है कि उनके देश का काला धन यदि निकल कर वापस आ जाए तो मंदी को मात दी जा सकती
है। स्विस बैंक सहित तमाम विदेशी
बैंकों में जमा काले धन में भारतीयों की हिस्सेदारी ज्यादा है। ऐसे में यहाँ उम्मीदें भी ज्यादा हैं । पर अभी
तक विदेशी बैंकों में जमा काले धन को भारत वापस लाने के लिए हमारे पास ठोस कानून
और सरकारी इच्छा शक्ति दोनों नहीं है । भाजपा सरकार का
प्रमुख चुनावी मुद्दा कालाधन अब उनके लिए ही गले की हड्डी बन चुका है ।
दिसंबर-13 तक स्विस बैंकों में जमा भारतियों के धन का जो आकड़ा
है, वह भी चौकाने वाला
है। दिसंबर-12 तक के धन के तुलना में 42% ज्यादा है। एक तरफ देश का काला धन विदेशी
बैंकों से लाने के लिए के लिए देश में धरना-प्रदर्शन हो रहा था , वहीँ भारत का काला-धन
विदेशी बैंकों में ज्यादा जमा हो रहा था । अवैध तरीके से देश के अंदर कमाये गए
काले धन को विदेशी बैंकों में जमा कराने में अहम भूमिका निभाने वाले हवाला एजेंट
लचर कानून के चलते देश को चूना लगा कर अधिकारियों, नेताओं और
उद्योगपतियों के खाते में जमा कर देते हैं।
इस संबंध में किस सरकार ने
कितनी कोशिश की, इन कोशिशों का नतीजा क्या निकला और आगे सरकार क्या-क्या उपाय
करनेवाली है, इन सवालों के जवाब न तो यूपीए सरकार के पास थे और न ही एनडीए
सरकार के पास ही हैं । सबसे बड़ा सवाल ये
है कि देश की जनता की नामों में दिलचस्पी तो है लेकिन वो ये भी जानना चाहती है कि पैसे
कब आएंगे। क्या विदेश से पैसे लाना सही में काफी मुश्किल काम है ? और क्या नाम में
उलझा कर बीजेपी सिर्फ अपने चुनावी वादे को पूरा करने की रस्म भर निभा रही है ? अगर
इस काले धन का 10 प्रतिशत हिस्सा भी भारत में आ जाए, तो उससे भारतीय अर्थव्यवस्था
को काफी फायदा हो सकता है । ऐसे में गंभीर प्रयास होना जरूरी हैं । काले धन को वापस
लाया जा सकता है, लेकिन इसके लिए जरूरी है कि सरकार प्रबल इच्छा शक्ति
का परिचय दे।
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