रूहेलखंड के छोटे से शहर शाहजहांपुर ने एकता और विद्वता के अनेको अनमोल रत्न भारत को समर्पित किये हैं , जिनकी याद करके ही हम अपनी विरासत पर गौरव का अनुभव कर लेते हैं । इनमे से एक महत्वपूर्ण नाम है , पंडित मौलाना डॉ. बशीरूद्दीन कादरी का ।
11 भाषाओं के विद्वान पंडित बशीरुद्दीन ने धार्मिक समभाव का सन्देश देने के लिए जिस बुनियादी काम को अंजाम दिया उसकी मिसाल विरले ही मिलती है । उन्होंने हदीस, कुरआन, वेदों और गीता का गूढ़ अध्ययन किया और उनसे संबंधित हजारों अन्य पुस्तकें पढ़ने के बाद संस्कृत में कुरआन और अरबी में गीता का अनुवाद किया। इन दोनों ग्रंथों पर इस प्रकार का वह पहला अनुवाद था। अभी तक किसी और ने तो ऐसा किया नहीं है।।दरअसल उनको अरबी और संस्कृत में सामान रूप से अधिकार था। उनको गीता और कुरआन दोनों कंठस्थ थे। इतिहास के भी अच्छे जानकार पंडित बशीरुद्दीन ने इतिहास पुस्तिका तारीख-ए-हिंदी की भी रचना की। यह पुस्तक अलीगढ़ विश्वविद्यालय की स्नातक कक्षाओं में आज भी पढ़ाई जाती है। विश्वविद्यालय के प्रसिद्ध इतिहासकार प्रो. इरफान हबीब मानते हैं कि इतिहास पर यह पुस्तक मील का पत्थर साबित हुई है।
पंडित बशीरुद्दीन का जन्म 20 अक्तूबर 1900 को शाहजहांपुर में हुआ था । उनके पिता मौलवी खैरूद्दीन बदायूं के लिलमा गांव की प्रारंभिक पाठशाला में अध्यापक थे। यहाँ से प्रारंभिक शिक्षा ग्रहण करने के पश्चात् पंडित बशीरुद्दीन ने अपनी तेजस्वी छवि और प्रतिभा का परिचय देते हुए इसी कस्बे से हाईस्कूल पास किया और 1922 में इंटर की परीक्षा में बरेली इंटर कॉलेज में प्रथम स्थान प्राप्त किया। बचपन में ही अपने ज्ञान और अद्भुत क्षमताओं से उन्होंने सबको आश्चर्य में डाल दिया था । उन्होंने स्नातक एवं स्नातकोत्तर अलीगढ़ से किया । फिर पी-एच.डी. अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से ही की। इसके पश्चात् उर्दू, हिंदी, अंग्रेजी, फारसी और अरबी में निपुणता प्राप्त की। पंडित बशीर की अरबी की दक्षता देख तो विश्वविद्यालय के प्रोफेसर भी दंग रह गए। किसी श्लोक में उपसर्ग या हलंत या किसी आयत के उच्चारण में सुधार कराने के लिए उनके पास बड़े-बड़े विद्वान भी आया करते थे। गीता और कुरआन पर व्याख्यान देने के लिए अक्सर उन्हें मंदिरों व मस्जिदों में आमंत्रित किया जाता था।
गरीबी से जूझते इस विद्वान को अपने कृतित्व के प्रकाशन के लिए बहुत परेशानी उठानी पड़ी ।तीन भाग में लिखी गई तारीख-ए-हिंदी के तीसरे भाग का प्रकाशन वह नहीं करा पाए , जिसका मलाल उनको जीवन भर रहा । शहर के ही एक इंटर कालेज में अध्यापन करके जीवन यापन करने वाले पंडित बशीरुद्दीन और उनके परिवार को को फंड और पेंशन जैसे मामलो में भी उपेक्षा का शिकार होना पड़ा , जोकि बहुत ही दुखद पहलु है ।12 फरवरी 1988 को हम सबसे विदा हुए पंडित जी अपने पीछे पुस्तकों का अनमोल खजाना छोड़ गए थे , जिसको सहेजने वाला कोई सामने नहीं आया । सरकारी मदद की गुहार भी खाली ही गई । आखिर में उनके छोटे बेटे जफरूद्दीन कादरी ने जैसे तैसे इस दायित्व को निभाया । जीवन भर आत्मसम्मान की खातिर परेशानियों का सामना करने वाले पंडित बशीरुद्दीन जी को उनके स्तर के अनुरूप सम्मान और पहचान नहीं मिल पाई । इनके पुत्र हाफिज मुईजुद्दीन कादरी, जो कि चंदौसी में अध्यापक हैं, ने सरकार से निवेदन किया था कि उनके विद्वान पिता के नाम पर शाहजहांपुर में एक सड़क का नाम रख दिया जाए, तो आज तक इस पर कोई विचार नहीं हुआ । शाहजहांपुर शहीदों और वतन पर मिटने वालों की ही नगरी ही नहीं , अपितु मार्तंड विद्वानों का वतन होने का गौरव भी उसे प्राप्त है। दुखद स्थिति यह है की धार्मिक एकता के सतही काम करके भी तमाम लोगो ने मंचीय तालियाँ और तमगे बटोर लिए , पर ज़मीन से जुड़ा और ठोस काम करने वाले पंडित बशीरुद्दीन आज गुमनामी के अंधेरों के हवाले हैं । मिट्टी की चिनाई और खपरैल की छत वाले मकान में रह कर इतनी मजबूत अमनपसंदीदा साहित्यिक विरासत का महल बना कर जुदा हुए इस महानायक के काम को हम अमन पसंदों का सलाम !
11 भाषाओं के विद्वान पंडित बशीरुद्दीन ने धार्मिक समभाव का सन्देश देने के लिए जिस बुनियादी काम को अंजाम दिया उसकी मिसाल विरले ही मिलती है । उन्होंने हदीस, कुरआन, वेदों और गीता का गूढ़ अध्ययन किया और उनसे संबंधित हजारों अन्य पुस्तकें पढ़ने के बाद संस्कृत में कुरआन और अरबी में गीता का अनुवाद किया। इन दोनों ग्रंथों पर इस प्रकार का वह पहला अनुवाद था। अभी तक किसी और ने तो ऐसा किया नहीं है।।दरअसल उनको अरबी और संस्कृत में सामान रूप से अधिकार था। उनको गीता और कुरआन दोनों कंठस्थ थे। इतिहास के भी अच्छे जानकार पंडित बशीरुद्दीन ने इतिहास पुस्तिका तारीख-ए-हिंदी की भी रचना की। यह पुस्तक अलीगढ़ विश्वविद्यालय की स्नातक कक्षाओं में आज भी पढ़ाई जाती है। विश्वविद्यालय के प्रसिद्ध इतिहासकार प्रो. इरफान हबीब मानते हैं कि इतिहास पर यह पुस्तक मील का पत्थर साबित हुई है।
पंडित बशीरुद्दीन का जन्म 20 अक्तूबर 1900 को शाहजहांपुर में हुआ था । उनके पिता मौलवी खैरूद्दीन बदायूं के लिलमा गांव की प्रारंभिक पाठशाला में अध्यापक थे। यहाँ से प्रारंभिक शिक्षा ग्रहण करने के पश्चात् पंडित बशीरुद्दीन ने अपनी तेजस्वी छवि और प्रतिभा का परिचय देते हुए इसी कस्बे से हाईस्कूल पास किया और 1922 में इंटर की परीक्षा में बरेली इंटर कॉलेज में प्रथम स्थान प्राप्त किया। बचपन में ही अपने ज्ञान और अद्भुत क्षमताओं से उन्होंने सबको आश्चर्य में डाल दिया था । उन्होंने स्नातक एवं स्नातकोत्तर अलीगढ़ से किया । फिर पी-एच.डी. अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से ही की। इसके पश्चात् उर्दू, हिंदी, अंग्रेजी, फारसी और अरबी में निपुणता प्राप्त की। पंडित बशीर की अरबी की दक्षता देख तो विश्वविद्यालय के प्रोफेसर भी दंग रह गए। किसी श्लोक में उपसर्ग या हलंत या किसी आयत के उच्चारण में सुधार कराने के लिए उनके पास बड़े-बड़े विद्वान भी आया करते थे। गीता और कुरआन पर व्याख्यान देने के लिए अक्सर उन्हें मंदिरों व मस्जिदों में आमंत्रित किया जाता था।
गरीबी से जूझते इस विद्वान को अपने कृतित्व के प्रकाशन के लिए बहुत परेशानी उठानी पड़ी ।तीन भाग में लिखी गई तारीख-ए-हिंदी के तीसरे भाग का प्रकाशन वह नहीं करा पाए , जिसका मलाल उनको जीवन भर रहा । शहर के ही एक इंटर कालेज में अध्यापन करके जीवन यापन करने वाले पंडित बशीरुद्दीन और उनके परिवार को को फंड और पेंशन जैसे मामलो में भी उपेक्षा का शिकार होना पड़ा , जोकि बहुत ही दुखद पहलु है ।12 फरवरी 1988 को हम सबसे विदा हुए पंडित जी अपने पीछे पुस्तकों का अनमोल खजाना छोड़ गए थे , जिसको सहेजने वाला कोई सामने नहीं आया । सरकारी मदद की गुहार भी खाली ही गई । आखिर में उनके छोटे बेटे जफरूद्दीन कादरी ने जैसे तैसे इस दायित्व को निभाया । जीवन भर आत्मसम्मान की खातिर परेशानियों का सामना करने वाले पंडित बशीरुद्दीन जी को उनके स्तर के अनुरूप सम्मान और पहचान नहीं मिल पाई । इनके पुत्र हाफिज मुईजुद्दीन कादरी, जो कि चंदौसी में अध्यापक हैं, ने सरकार से निवेदन किया था कि उनके विद्वान पिता के नाम पर शाहजहांपुर में एक सड़क का नाम रख दिया जाए, तो आज तक इस पर कोई विचार नहीं हुआ । शाहजहांपुर शहीदों और वतन पर मिटने वालों की ही नगरी ही नहीं , अपितु मार्तंड विद्वानों का वतन होने का गौरव भी उसे प्राप्त है। दुखद स्थिति यह है की धार्मिक एकता के सतही काम करके भी तमाम लोगो ने मंचीय तालियाँ और तमगे बटोर लिए , पर ज़मीन से जुड़ा और ठोस काम करने वाले पंडित बशीरुद्दीन आज गुमनामी के अंधेरों के हवाले हैं । मिट्टी की चिनाई और खपरैल की छत वाले मकान में रह कर इतनी मजबूत अमनपसंदीदा साहित्यिक विरासत का महल बना कर जुदा हुए इस महानायक के काम को हम अमन पसंदों का सलाम !
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