रुपया........ हाय ......... रुपया
अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में दिन-ब-दिन कमजोर होते रुपये ने
भारतीय अर्थव्यवस्था के सामने गंभीर संकट खड़ा कर दिया है । बढ़ते भुगतान असंतुलन, चालू खाता घाटे में वृद्धि और मुद्रास्फीति के
दबाव के कारण पिछले 66 सालों में डालर
के मुकाबले रूपए की कीमत में 6000 प्रतिशत की
गिरावट आई है। जोकि पतन की और अग्रसर अर्थवयवस्था की कहानी खुद बयान करता है । अगर
हम अपने पडोसी चीन की ओर नज़र दौडाते हैं तो नज़र आता है की वहां डालर की आमद तरक्की
के रास्ते लेकर आती है ,जबकि हमारे यहाँ
डालर का आना बहु प्रचारित तो होता है ,लेकिन एक समय के
साथ वो हमारी असल पूंजी को भी लेकर वापसी कर जाता है । आयात और निर्यात का अंतर
खतरे के निशान को पार कर चुका है । चालू खाते का भयावह घाटा स्थिति को खतरनाक हद
तक ले जा रहा है ।लेकिन प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री के पास चिंता जताने के आगे
कोई उपाय नज़र नहीं आता । रुपये की हैसियत बढाने के लिए किसी भी सरकार के द्वारा कोई
क़दम नहीं उठाये गए , उलटे राजनीतिक
लाभ के लिए घाटे की योजनाओ और परियोजनाओं को तरजीह दी गई । भारतीय अर्थव्यवस्था को
आधुनिक बनाने के बचकाने प्रयासों से भी रूपए की साख को बट्टा लगा है । आजादी तक
भारत अपनी मूलभूत जरूरतों के लिए आत्म निर्भर था । केवल रक्षा ,एवं विलासिता पूर्ण वस्तुओं के लिए हम आयात के मोहताज़ थे ।
लेकिन पूरी अर्थव्यवस्था में से इन सबका प्रतिशत बहूत कम था । आज जहाँ
विलासितापूर्ण जीवनशैली ने अपने पाँव ग्रामीण अंचल तक पसार लिए हैं वहीँ बुनियादी
जरूरतों के लिए भी आयातदर में भयावह बढ़ोत्तरी हुई है ।
आंकड़ों के अनुसार देश की स्वतंत्रता के समय विदेश व्यापार संतुलन भारत के पक्ष में था और रूपए की कीमत डालर के मुकाबले बराबर थी। अर्थात १९४७ में डालर की कीमत एक रूपए मात्र थी । अगर हम इतिहास के और पुराने पन्ने पलटते हैं तो पता चलता है कि १९२५ में डालर की कीमत मात्र दस पैसे ही थी । इससे पता चलता है कि भारत की अर्थव्यवस्था को हमारे ही कमजोर वित्तीय प्रबंधन ने रसातल में पहुँचाया है ।आज़ादी के बाद से ही विदेश व्यापार का संतुलन भारतीय अर्थव्यवस्था के पक्ष में नहीं रहा । आयात और निर्यात के बीच का फर्क बढ़ता गया और रूपए की गिरती स्थिति पर हमारे वित्तीय प्रबंधकों ने कभी भी ध्यान नहीं दिया । जिसका नतीजा आज हमारे सामने आगया है । मुद्रास्फीति की ऊँची दर के सामने भारतीय बाज़ार लड़खड़ाने लगे हैं । गौरतलब है की विश्व में आर्थिक मंदी के बावजूद भारत ने क़दम जमाने का प्रयास किया , और कुछ हद तक सफल भी रहा लेकिन रूपए की कमजोरी ने आखिर कर झटका दे ही दिया । सरकार के ढ़ुलमुल रवैए और भारतीय रिजर्व बैंक की मुद्रा बाजार में हस्तक्षेप नहीं करने की नीति ने रूपए की गिरावट को बल दिया। बेहतर फसल की उम्मीद से कुछ आशाएं हैं ,लेकिन चुनावी वर्ष होने के कारण बाज़ार की स्थिति डांवाडोल रहेगी । जिससे बात वहीँ पहुँच जाएगी।
आंकड़ों के अनुसार देश की स्वतंत्रता के समय विदेश व्यापार संतुलन भारत के पक्ष में था और रूपए की कीमत डालर के मुकाबले बराबर थी। अर्थात १९४७ में डालर की कीमत एक रूपए मात्र थी । अगर हम इतिहास के और पुराने पन्ने पलटते हैं तो पता चलता है कि १९२५ में डालर की कीमत मात्र दस पैसे ही थी । इससे पता चलता है कि भारत की अर्थव्यवस्था को हमारे ही कमजोर वित्तीय प्रबंधन ने रसातल में पहुँचाया है ।आज़ादी के बाद से ही विदेश व्यापार का संतुलन भारतीय अर्थव्यवस्था के पक्ष में नहीं रहा । आयात और निर्यात के बीच का फर्क बढ़ता गया और रूपए की गिरती स्थिति पर हमारे वित्तीय प्रबंधकों ने कभी भी ध्यान नहीं दिया । जिसका नतीजा आज हमारे सामने आगया है । मुद्रास्फीति की ऊँची दर के सामने भारतीय बाज़ार लड़खड़ाने लगे हैं । गौरतलब है की विश्व में आर्थिक मंदी के बावजूद भारत ने क़दम जमाने का प्रयास किया , और कुछ हद तक सफल भी रहा लेकिन रूपए की कमजोरी ने आखिर कर झटका दे ही दिया । सरकार के ढ़ुलमुल रवैए और भारतीय रिजर्व बैंक की मुद्रा बाजार में हस्तक्षेप नहीं करने की नीति ने रूपए की गिरावट को बल दिया। बेहतर फसल की उम्मीद से कुछ आशाएं हैं ,लेकिन चुनावी वर्ष होने के कारण बाज़ार की स्थिति डांवाडोल रहेगी । जिससे बात वहीँ पहुँच जाएगी।
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