सच की तलाश में शुरू हुआ सफ़र.....मंजिल तक पहुंचेगा जरुर !!!

सच की तलाश में शुरू हुआ सफ़र.....मंजिल तक पहुंचेगा जरुर !!!
AMIR KHURSHEED MALIK

Wednesday, February 26, 2014

नमो बनाम युवराज बनाम केजरीवाल

              नमो बनाम युवराज बनाम केजरीवाल



आज सियासत का जो माहौल देश में बना है उससे नहीं लगता कि आगामी लोकसभा चुनाव किन्हीं विचारधाराओं व मुद्दों पर केंद्रित होगा, बल्कि समूचा माहौल दो व्यक्तित्वों को लेकर बनाया जा चुका है जिसमें एक ओर नरेन्द्र मोदी हैं और दूसरी ओर राहुल गांधी। दोनों के दरमियाँ जबानी लड़ाई शुरू हो चुकी है सत्ता तक पहुँचने के लिए दावों पर दावों का दौर जारी है ।मंच,अखबार  और चैनल से निकल कर ये लड़ाई सोशल मीडिया में में पुरे शबाब पर है । अण्णा हजारे के आंदोलन से प्रकाश में आई आम आदमी पार्टी (आप) के नायक और राजनीतिक सरजमीं पर महानायक के तौर पर सामने आए अरविंद केजरीवाल एक ऐसी ही शख्सियत हैं जिन्होंने दिल्ली में अपने पहले ही प्रयास में वहां की जमी-जमाई सरकार के पांव उखाड़ फेंके। और एक ही झटके में कांग्रेस-भाजपा को लोहे के चने चबाने मजबूर कर दिया।उनका इस मुकाबले में त्रिकोण पैदा करने की हैसियत भले ही ना बन पाई हो पर इन दोनों को नुकसान पहुचाने की स्थिति में तो आ ही सकते हैं । सूत्रों के अनुसार आप की रणनीति होगी कि फिलहाल वह कांग्रेस और बीजेपी पर समान रूप से हमला करे, जबकि मुद्दा और मौका देखते हुए रिस्पॉन्स करे। आप पर सीधे-सीधे मोदी के कमेंट्स करने से यह संदेश गया है कि मोदी के लिए अब कांग्रेस ही नहीं आप भी खतरा है। केजरीवाल और मोदी दोनों युवाओं और सोशल मीडिया में बेहद लोकप्रिय हैं। यहां दोनों की बराबर टक्कर होती है। दोनों में न्यू इंडिया के लीडर के तौर पर पेश होने की होड़ है। आप और बीजेपी दोनों ही पार्टियां कांग्रेस और करप्शन के खिलाफ असली जंग लड़ने का दावा करते हुए लोकसभा चुनाव की ताल ठोककर वोटरों को लुभाने की कोशिश में हैं। हाल तक पस्त दिख रही कांग्रेस पार्टी में सुगबुगाहट तेज हो गई है। राजनीतिक पंडित भले ही उसको रेस से बाहर बता रहे हों पर पार्टी ने बिना धैर्य खोये और जल्दबाजी दिखाए अपने आकलन के हिसाब से अपनी तैयारी अब शुरू की है। पार्टी उपाध्यक्ष राहुल गांधी कार्यकर्ताओं का आत्मविश्वास बढ़ाने के लिए कमर कसकर तैयार दिख रहे हैं। 

चुनावी मौसम

                                                               सर्वेक्षणों की हकीकत 
हर चुनावी मौसम की तरह इस बार भी हर न्यूज़ चैनल और सर्वेक्षण एजेंसियों के चुनावी आंकलन आने लगे है । लगभग सभी में कांग्रेस को नुकसान और भाजपा को बढ़त की बात दोहरे गई है । हालांकि किसी को बहुमत मिलता नहीं दिखाया गया है । साथ ही क्षेत्रीय दलों और तीसरे मोर्चे को भी फायदा मिलने की संभावना जताई जारही है । लेकिन यहाँ पर हम कुछ पिछले सर्वेक्षणों की बात करेंगे । सबसें पहले बात करते है लोकसभा चुनाव 2009 की। जब भाजपा के दिग्गज नेता लाल कृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में पूरी भाजपा दिल्ली की सत्ता पर आसीन होने के जुटी थीं। उस दौरान आने वाले लगभग हर मीडिया सर्वेक्षण में यह बात कही जा रही थी कि काग्रेंस शासित यूपीए का ग्राफ गिर रहा है और सत्ता के शीर्ष तक पहुँचने की डगर काफी कठिन है। हर रिपोर्ट का निष्कर्ष लगभग में यही होता था। कि भाजपा सत्ता में आ रही है। पर जब लोकसभा चुनाव 2009 के परिणाम आयें तो वह अप्रत्याशित थें। यूपीए दुगनी ताकत के साथ सत्ता में आया। अब बात करतें है यूपी विधानसभा चुनाव 2012 की। लोकसभा चुनावों के लिहाज सें अत्यन्त महत्वपूर्ण इस विधान सभा चुनाव में जो चुनावी सर्वेक्षण परिणाम आ रहें थें, उनमें सपा को लाभ तो दिखाया जा रहा था। पर साथ यह भी कहा जा रहा था कि यूपी विधानसभा चुनाव 2012 के परिणाम त्रिशुंक होगें । किसी भी दल को पूर्ण बहुमत नही मिलेगा। पर जब परिणाम तो सारें मीडिया सर्वेक्षण धरें के धरे रह गयें, ओर सपा पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में आयी। दिल्ली के पिछले चुनाव की बात करें तो केजरीवाल टीम से इतनी अच्छी सफलता की उम्मीद किसी सर्वेक्षण ने नहीं की थी । हालांकि इससे यह सिद्ध नहीं होता कि सर्वेक्षण हमेशा ही गलत होते हैं ।परन्तु इस पर पूरी तरह से भरोसा नहीं किया जासकता । क्योंकि यह सर्वेक्षण चुनिन्दा लोगो पर किये जाते हैं । इनसे हमेशा वास्तविक तस्वीर सामने आयेगी , ऐसा नहीं कहा जा सकता ।उधर एक स्टिंग आपरेशन ने सर्वेक्षण एजेंसियों पर पैसा लेकर रिजल्ट में फेरबदल का आरोप लगाया है , इससे इस पुरे मामले में एक नया मोड़ आ गया है ।

Monday, February 24, 2014

चुनाव २०१४ (3)

अगर तीसरे मोर्चे की बात करें तो नज़र आता है कि उनके पास प्रधानमंत्री पद के भी कई दावेदार होंगे । तब मुलायम के अलावा मायावतीशरद पवार, जयललिता, नीतीश कुमार और ममता बनर्जी पीएम बनने की रेस में शामिल हो जायेंगे । इनमें से सभी २० या उससे अधिक सीटें जीतने में सक्षम हैं ।  शरद पवार बेशक अपवाद हैं, लेकिन अगर वह १० से १४ सीटें जीतते हैं, तब भी उनका महत्व कम नहीं होगा । तीसरे मोरचे में वाम दल, सपा के अलावा  तेदेपा, राकांपा, रालोद, जद (एस), बीजद, जदयू, नेशनल कांफ्रेंस, पीडीपी, अन्नाद्रमुक या द्रमुक,इनेलो, तेलंगाना राष्ट्र समिति, वाईआरएस कांग्रेस और अन्य छोटे दल शामिल हो सकते हैं । पर ऐसा तभी हो सकता है, जब भाजपा एवं शिवसेना को अलग-थलग कर दिया जाए और बसपा एवं तृणमूल कांग्रेस तटस्थ रहें । कुछ क्षेत्रीय ताकतें दोनों तरफ जा सकती हैं । वो चुनाव बाद के नतीजों के अनुसार फायदे की बात को तरजीह देने में माहिर मानी जाती हैं  ।

चुनाव २०१४ (२)

विधानसभा चुनाव के नतीजे को देखते हुए कांग्रेस पर एक मनोवैज्ञानिक दबाव बना है । जिससे उबरने के लिए कांग्रेसी प्रयास शुरू भी हो चुके हैं । इसी कड़ी में राहुल गांधी को युवा शक्ति के रूप में स्थापित करने के लिए सोशल मीडिया और परंपरागत प्रचार के स्रोतों का इस्तेमाल शुरू हो चूका है । कांगेस पिछले विधानसभा चुनावों के दरमियाँ भाजपा की मोदी विंग द्वारा सोशल मीडिया के प्रभावी इस्तेमाल को लेकर भी चिंतित है । इससे निपटने के लिए एक विदेशी कंपनी को सोशल मीडिया की कमान सौंपने का फैसला खुद राहुल गाँधी के दखलंदाजी के बाद लिया गया । इसके पीछे एक मोटा बजट खर्च होने की उम्मीद है । 2014 के आम चुनाव में कांग्रेस के लिए चुनौतियां और संभावनाएं दोनों हैं चुनाव से पूर्व अन्य दलों के साथ गंठबंधन महत्वपूर्ण है ।लोकसभा चुनाव के सियासी गणित के लिहाज से महत्वपूर्ण माने जानेवाले राज्यों बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश आदि में पार्टी की सेहत बेहतर नहीं दिख रही । ऐसे में राहुल गांधी के सामने सबसे बड़ी चुनौती पार्टी कार्यकर्ताओं के उत्साह में आयी कमी को दूर करने की है ।कांग्रेस पार्टी के १० साल पुराने परन्तु नए सोच वाले चिराग राहुल गांधी अपने तरकश से कई तीर निकाल रहे हैं। एक तरफ तो अपने भाषणों में वह परंपरा, कांग्रेस पार्टी की सोच और भारत के इतिहास की कड़ी दुहाई दे रहे हैं। वहीं दूसरी ओर वह विपक्ष की मार्केटिंग रणनीति को जनता के सामने उजागर करने की भरपूर कोशिश कर रहे हैं।

कांग्रेस से भी डीएमके, तृणमूल कांग्रेस पहले ही अलग हो गये है । प्रमुख सहयोगियों में सिर्फ राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी बची है । उसके साथ को लेकर भी कांग्रेस को आशंका लगी रहती है ।जहां तक सपा, बसपा और राजद का सवाल है, तो ये पार्टियां बिना मांगे समर्थन दे रही हैं । अगर तीसरा मोर्चा प्रभावी हुआ तो कम से कम सपा तो कांग्रेस से दूर हो ही जाएगी । तमाम सर्वे में भी कांग्रेस की हालत बेहद कमजोर दिखाई जा रही है। ऐसे में कांग्रेस अपने प्लान बी पर भी काम करने में जुट गई है। कांग्रेस का प्लान बी किसी भी तरह  एनडीए को सत्ता तक पहुंचने से रोकने का है। इसके लिए राहुल गांधी अंदरूनी तौर पर एक प्लान तैयार कर चुके हैं। इस 'प्‍लान बी' के तहत राहुल कांग्रेस के समर्थन से किसी तीसरे मोर्चे की सरकार बनवा सकते हैं। इसके बाद राहुल को कांग्रेस को मज़बूत करने  का समय मिलेगा जिसके बाद राहुल मध्यावधि चुनाव की स्थिति पैदा करवा सकते हैं। 

चुनाव २०१४ (1)

गुजरात के मुख्यमंत्री और भाजपा के पीएम इन वेटिंग नरेन्द्र मोदी को पुरे देश की पहली पसंद बताया जा रहा है । विभिन्न सर्वेक्षणों में उनको सर्वाधिक मत प्राप्त हुए हैं ।कांग्रेस की नाकामियों को भुनाने के लिए नरेन्द्र मोदी अपनी चिर-परिचित आक्रामक मुद्रा अपनाये हुए हैं ।उनको भ्रष्टाचार,महंगाई और विकास के नाम पर देश में समर्थन मिलता दिख रहा है ।१९९८ और १९९९ में भाजपा अटल बिहारी वापपेयी के नेतृत्व में चुनाव लड़ी थी। संजीदा, समझदार और अनुभवी राजनेता की छवि रखने वाले वाजपेयी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाकर उसे दोनों बार सत्ता हासिल हुई थी, भले ही पहली सरकार १३ दिन चली, लेकिन अगली सरकार १ सीट का इजाफा करते हुए १८३ का आंकड़ा छूने में सफल हुई, और अन्य पार्टियों के सहयोग से सरकार बनाने में सफल रही और एक सफल कार्यकाल पूरा किया। आज स्थितियां १९९८ या १९९९ वाली नहीं हैं, जब भाजपा अन्य सहयोगी पार्टियों की सहायता से सिंहासन पर बैठी थी। अटलबिहारी वाजपेई जैसा एक सशक्त और दूरदर्शी सोच का व्यक्ति भाजपा का अगुवाई कर रहा था। लेकिन आज भाजपा के कुनबे के कई पुराने साथी अलविदा कह चुके हैं । नरेंद्र मोदी के चुनाव प्रचार समिति अध्यक्ष बनने पर शुरू हुआ विवाद पुराने साथी नीतीश कुमार की विदाई के रूप में सामने आया । जनता दल यूनाइटेड, जिसके अध्यक्ष शरद यादव हैं, ऐसी १३वीं पार्टी थी, जिसने भाजपा का साथ छोड़ा। अब एनडीए में केवल शिवसेना, शिरोमणि अकाली बादल और छोटी छोटी आठ पार्टियां हैं ।  इस बीच लाल कृष्ण आडवाणी की नाराज़गी ने पार्टी की अन्दुरुनी कलह को भी उजागर किया । हालांकि इस बात का चुनावों पर कितना असर पड़ेगा , कहना मुश्किल है । भाजपा को अगर सत्ता हासिल करनी है तो उसको एक जादूई आंकड़ा हासिल करना होगा। अकेली भाजपा को २०० से अधिक सीटें बटोरनी होंगी। मौजूदा समय में भाजपा के नहीं, बल्कि एडीए के पास केवल 138 सीटें हैं। भाजपा को गुजरात, राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़,   दिल्ली, यूपी, बिहार एक बेहतरीन प्रदर्शन करना होगा। यहां से आने वाले आंकड़े भाजपा की किस्मत बदल सकते हैं। हालांकि गुजरात, राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ में भाजपा की राज्य सरकारें हैं और लोकसभा चुनावों में यहां भाजपा को बढत मिलती दिख रही है। निश्चित रूप से विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद भाजपा का मनोबल ऊंचा है ।

Thursday, February 20, 2014

आम आदमी

                   सट्टाखोरी , जमाखोरी और भ्रष्टाचार ! इन तीन दानवों के बीच उलझा आम आदमी अपनी न्यूनतम जरूरतों को पूरा करने में ही जीवन निकाल देता है ........ उम्मीद के नाम पर चुनावी वायदों का लालीपाप ही नज़र आता है .................. वाह रे लोकतंत्र !

रुपया और हम

रुपया........ हाय ......... रुपया

अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में दिन-ब-दिन कमजोर होते रुपये ने भारतीय अर्थव्यवस्था के सामने गंभीर संकट खड़ा कर दिया है । बढ़ते भुगतान असंतुलन, चालू खाता घाटे में वृद्धि और मुद्रास्फीति के दबाव के कारण पिछले 66 सालों में डालर के मुकाबले रूपए की कीमत में 6000 प्रतिशत की गिरावट आई है। जोकि पतन की और अग्रसर अर्थवयवस्था की कहानी खुद बयान करता है । अगर हम अपने पडोसी चीन की ओर नज़र दौडाते हैं तो नज़र आता है की वहां डालर की आमद तरक्की के रास्ते लेकर आती है ,जबकि हमारे यहाँ डालर का आना बहु प्रचारित तो होता है ,लेकिन एक समय के साथ वो हमारी असल पूंजी को भी लेकर वापसी कर जाता है । आयात और निर्यात का अंतर खतरे के निशान को पार कर चुका है । चालू खाते का भयावह घाटा स्थिति को खतरनाक हद तक ले जा रहा है ।लेकिन प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री के पास चिंता जताने के आगे कोई उपाय नज़र नहीं आता । रुपये की हैसियत बढाने के लिए किसी भी सरकार के द्वारा कोई क़दम नहीं उठाये गए , उलटे राजनीतिक लाभ के लिए घाटे की योजनाओ और परियोजनाओं को तरजीह दी गई । भारतीय अर्थव्यवस्था को आधुनिक बनाने के बचकाने प्रयासों से भी रूपए की साख को बट्टा लगा है । आजादी तक भारत अपनी मूलभूत जरूरतों के लिए आत्म निर्भर था । केवल रक्षा ,एवं विलासिता पूर्ण वस्तुओं के लिए हम आयात के मोहताज़ थे । लेकिन पूरी अर्थव्यवस्था में से इन सबका प्रतिशत बहूत कम था । आज जहाँ विलासितापूर्ण जीवनशैली ने अपने पाँव ग्रामीण अंचल तक पसार लिए हैं वहीँ बुनियादी जरूरतों के लिए भी आयातदर में भयावह बढ़ोत्तरी हुई है ।
आंकड़ों के अनुसार देश की स्वतंत्रता के समय विदेश व्यापार संतुलन भारत के पक्ष में था और रूपए की कीमत डालर के मुकाबले बराबर थी। अर्थात १९४७ में डालर की कीमत एक रूपए मात्र थी । अगर हम इतिहास के और पुराने पन्ने पलटते हैं तो पता चलता है कि १९२५ में डालर की कीमत मात्र दस पैसे ही थी । इससे पता चलता है कि भारत की अर्थव्यवस्था को हमारे ही कमजोर वित्तीय प्रबंधन ने रसातल में पहुँचाया है ।आज़ादी के बाद से ही विदेश व्यापार का संतुलन भारतीय अर्थव्यवस्था के पक्ष में नहीं रहा । आयात और निर्यात के बीच का फर्क बढ़ता गया और रूपए की गिरती स्थिति पर हमारे वित्तीय प्रबंधकों ने कभी भी ध्यान नहीं दिया । जिसका नतीजा आज हमारे सामने आगया है । मुद्रास्फीति की ऊँची दर के सामने भारतीय बाज़ार लड़खड़ाने लगे हैं । गौरतलब है की विश्व में आर्थिक मंदी के बावजूद भारत ने क़दम जमाने का प्रयास किया , और कुछ हद तक सफल भी रहा लेकिन रूपए की कमजोरी ने आखिर कर झटका दे ही दिया । सरकार के ढ़ुलमुल रवैए और भारतीय रिजर्व बैंक की मुद्रा बाजार में हस्तक्षेप नहीं करने की नीति ने रूपए की गिरावट को बल दिया। बेहतर फसल की उम्मीद से कुछ आशाएं हैं ,लेकिन चुनावी वर्ष होने के कारण बाज़ार की स्थिति डांवाडोल रहेगी । जिससे बात वहीँ पहुँच जाएगी।

अच्छाई और बुराई

इस दुनिया में अच्छाई के साथ बुराई भी है , लेकिन अगर हम सिर्फ अच्छाई की चर्चा करें वही बेहतर होगा ,क्योंकि बुराई तो चाहती ही है की सिर्फ उसकी बात हो , हमें उसको नज़रंदाज़ करके अच्छे को तरजीह देना चाहिए .............. ! negative  हमारे आस पास इतना ज्यादा है की उससे पूरी तरह बच पाना असंभव है , इसलिए जब हम सिर्फ पॉजिटिव पर ध्यान केन्द्रित करेंगे तभी कुछ बचाव हो पायेगा ! लेकिन जब हम अपनी तरफ से ही negative के लिए जगह छोड़ देंगे तो फिर .............. !

धर्म

लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में
तुम तरस नहीं खाते बस्तियां जलाने में


बशीर बद्र साहब का बहुचर्चित ये शेर ना जाने कितने दर्दमंदों की व्यथा बयान कर जाता है ! हर धर्म शान्ति और सदभाव की सीख देता है ,लेकिन धर्म के तथाकथित पैरोकार अशांति फेलाने में ही धर्म को बदनाम करते नज़र आते हैं ! मुज़फ्फरनगर दंगे की बात करें तो प्रशासनिक विफलता से इनकार नहीं किया जा सकता ! लेकिन उससे पहले हम सबको अपने आपको भी सच्चा धार्मिक बनाना होगा , जो अपने धर्म के वास्तविक स्वरुप को पहचानने के साथ साथ दुसरे के धर्म का भी वास्तविक स्वरुप पहचाने ! तब एक सही तस्वीर हमारे सामने आयेगी , और हम समझ सकेंगे की सभी धर्मो का सार एक ही है ! सब धर्म हमको इंसान बनाने के मूल भावना संजोये हुए हैं , और हम हैं की शैतान बनने के लिए धर्म का सहारा ले रहे हैं !

mahasangram

देश की सत्ता पर 2014  में कौन काबिज होगा, राजनीतिक पर्यवेक्षक इसके कयास लगा रहे हैं । परन्तु लड़ाई दिलचस्प मोड़ पर है ,इससे इनकार नहीं किया जा सकता । दिल्ली में आप के नये राजनीतिक प्रयोगों की ऐतिहासिक कामयाबी और उसके बाद नाटकीय ढंग से , सत्ता से विदाई के बाद नजरें इस बात पर भी हैं कि 2014 में भारतीय राजनीति जाति-धर्म, परिवारवाद, क्षेत्रवाद आदि से जुड़े पारंपरिक चुनावी समीकरणों में ही उलझी रहेगी या भ्रष्टाचार, महंगाई, गरीबी और बेरोजगारी जैसे आम आदमी से जुड़े मुद्दे चुनावी राजनीति में बड़ी भूमिका निभायेंगे । इतना तय है कि 2014 के आम चुनाव को महंगाई, भ्रष्टाचार, आतंकवाद, संप्रदायवाद आदि मुख्य मुद्दे प्रभावित करेंगे, क्योंकि इन मुद्दों को हल करने का तरीका कोई नहीं बता रहा है । देश की सत्ताधारी पार्टी और मुख्य विपक्षी पार्टी सिर्फ पीएम कंडीडेट कौन होगा इस पर बहस कर रही हैं! 

मै ही साम्प्रदायिकता हूँ

मै ही साम्प्रदायिकता हूँ
छल-प्रपंचो से रची गई
झूठे आडम्बरों से ढकी गई
कपट के आँचल में ही पली
विष का ही जय गान किया
क्योंकि ...... मै ही साम्प्रदायिकता हूँ !
दोषी का ही गुण-गान किया
आरोपी को ही सम्मान दिया
निश्चल-निर्मल धाराओं का
सदा ही यूँ अपमान किया
 क्योंकि ...... मै ही साम्प्रदायिकता हूँ !
राजनीति का रूप बदलकर
कुनीति का जयगान किया
सत्ता के गलियारों में भी
नंगो जैसा नाच किया
क्योंकि ...... मै ही साम्प्रदायिकता हूँ !
निर्दोषों का रक्त बहा कर
मानवता का अपमान किया
पाखंडों के साए में हरदम
धर्म का ही अपमान किया
क्योंकि ...... मै ही साम्प्रदायिकता हूँ !




नीरो बांसुरी बजाता रहा !

नीरो बांसुरी बजाता रहा !
रोम जल रहा था , पर नीरो बांसुरी बजाता रहा मुज़फ्फरनगर के राहत शिविरों में बदहाली, ठण्ड से बढती मौतों के बीच सैफई मे रास-रंग की महफ़िल चलती रही आधुनिक नीरो भी अपने में मस्त महोत्सव का आनंद लेते रहे मुसलमानों के खैरख्वाह बनने का दावा करने वाले आज़म खान अपनी पलटन के साथ विदेश यात्रा का लुत्फ़ लेते रहे लोगों की चीत्कार इन लोगों के कानों में नहीं पहुंची , या जान बूझ कर अनसुनी कर कर दी गई महफ़िल की रौनक़ बढ़ाने में सरकारी अमले ने कोई कसर नहीं छोड़ी लेकिन यह मुस्तैदी मुज़फ्फरनगर मैं नदारद रही कंपकपाने वाली ठण्ड में अस्थाई ठिकाना छीनने की कोशिश भी लगातार जारी है कई जगह सरकारी कारिंदों ने ज़ुल्म ढाए , जहाँ नहीं कर पाए वहां इन ज़ुल्म के शिकार लोगों पर ही सरकारी संपत्ति पर ज़बरन कब्जे की कहानी बना डाली संस्कृति विभाग ने करोडो रूपए बर्बाद कर डाले लोहियावाद का आधुनिकीकरण करने की इन सरकारी कोशिशों को हिकारत की नज़र से समाज ने देखा जरुर ! पर दुर्दिन का शिकार लोगों के हालात पर भी इस सहानुभूति का कोई क़तरा नहीं पहुंचा
आखिर यह हालात किस बात की तरफ इशारा कर रहे हैं ? क्या सपा सरकार यह मान चुकी है कि इन दंगा राहत शिविरों में सिर्फ भाजपाई और कांग्रेसी ही रह रहे हैं ? और इन राजनीतिक दुश्मनों के लिए उसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं बनती इस हास्यास्पद हालात पर रोना आता है राजधर्म की दुहाई गुजरात सरकार को बार-बार याद दिलाने वालों को खुद राजधर्म की परिभाषा याद नहीं रही उत्तर प्रदेश की सपा सरकार के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव और सर्वेसर्वा मुलायम सिंह यादव के बयान भी पीडितो के ज़ख्म पर नमक छिड़कने वाले ही आये अफ़सोस बयानबाज़ी के माहिर ये जांबाज़ ज़बानी मरहम लगाने में भी चुक गए
उत्तर प्रदेश की राजनीति में सपा का सत्ता का रास्ता मुस्लिम वोटों के दरमियान से ही जाता है ऐसे में मुज़फ्फरनगर में दंगा पीड़ितों के साथ किया गया अबूझ रवैय्या मुलायम सिंह की राजनीतिक समझदारी पर भी सवाल खड़े कर रहा है राहत को दरकिनार कर दंगे के दोषी मुस्लिम नेताओं पर मामला वापस लेने की पहल ने उनकी बाकी बची साख भी मिटटी में मिला दी दंगा पीड़ितों को न्याय तो मिला नहीं , उलटे सामान्य होते दोनों समुदायों के बीच दूरियां फिर बढ़ गईं दोषी तो सिर्फ दोषी होता है ! उसको न्यायिक प्रक्रिया से ही निपटा जा सकता है धार्मिक आधार पर दोषमुक्त करना समझ के परे है , और न्यायसंगत भी नहीं है आज जब की पुरे देश में नई तरह की राजनीतिक लहर की सिहरन सौ साल पुरानी पार्टी को भी पछाड़ चुकी है , ऐसे में इस तरह की सामंतवादी राजनीति कितना परवान चढ़ेगी , निःसंदेह सवालों के घेरे में है ?


हमारी विरासत : वलीदाद खाँ

हमारी विरासत : वलीदाद खाँ
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इतिहास केवल उन्हीं को याद करता है, जिन्होंने अपने देश की आजादी के लिए हँसते-हँसते अपने प्राणों का बलिदान कर दिया । ऐसी ही एक शख्सियत वलीदाद खाँ ने 1857 की क्रांति में अपने सीमित संसाधनों में भी अंग्रेज़ों के खिलाफ अदभुत बगावती तेवर दिखाए। उनकी वीरता के कायल उनके विरोधी भी रहे हैं ।वे बुलन्दशहर के रहने वाले थे और मालागढ़ से क्रांति का संचालन करते थे। 1857 के समय नवाब वलीदाद खाँ का मालागढ़ रियासत में शासन था, तथा मुगल दरबार में उन्हें विशेष स्थान प्राप्त था। क्रांन्ति के समय बादशाह बहादुर शाह ज़फर ने उनकी क्षमताओं को आँक करके ही सूबेदार बनाया था ।उन्हें बुलन्दशहर, अलीगढ़ तथा निकटवर्ती क्षेत्रों की सूबेदारी सौंपी गई थी । 1857 में वलीदाद खाँ ने अंग्रेजों के विरूद्ध अपने क्षेत्र का नेतृत्व किया।
 स्थानीय लोगो के कथनानुसार वलीदाद खां ने अपने पुत्र के विवाह समारोह में मात्र इस कारण से शिरकत नहीं की , क्योंकि उस समय क्रांति की योजनायें परवान चढ़ रही थी । उनकी अनुपस्थिती में उनके करीबी और एक जाने माने क्रांतिकारी ने उनकी सारी जिम्मेदारियां उठाई थी । खान बहादुर खाँ तथा नाना साहब से भी उनकी क्रांति के स्वरुप और रणनीतियो को लेकर मुलाक़ात हुई थी।
वलीदाद खां ने 1857 की क्रांति में आगरा से मेरठ के बीच अंग्रेज़ों की संचार व्यवस्था को तहस – नहस कर डाला था। वलीदाद खाँ ने अंग्रेज़ों के विरूद्ध स्थानीय लोगों को एकजुट करते हुए युद्ध लड़ा। उनके इस अभियान में आस-पास के लोगों का उन्हें भरपूर सहयोग प्राप्त था। 1857 की क्रांति का यह महानायक हिन्दू-मुस्लिम एकता का पक्षधर था। उन्हें अच्छी तरह पता था कि भारत की आज़ादी का सपना हिन्दू-मुस्लिम के सामूहिक प्रयास के बिना संभव नहीं है ।उन्होंने अपनी सेना की कमान अयमान सिंह नाम के स्थानीय गुर्जर योद्धा को सौंपी थी, जो जीवन पर्यंत उनके सबसे विश्वसनीय साथी रहे ।बुलंदशहर से लेकर हापुड़ तक क्रांति की मशाल जलाने और उसकी आंच में आगरा तक की अंग्रेजी व्यवस्थाओं को जलाने का श्रेय वलीदाद खां को ही जाता है ।

उन्होंने अंग्रेज़ों को छकाते हुए  गुलावटी की सैनिक चौकी पर अधिकार कर लिया।यह अंग्रेज़ सरकार के लिए बड़ा झटका था ।अंग्रेज़ कमिश्नर को अपने आकाओं से गुहार लगनी पड़ी ।तब कई गुनी ताक़त के साथ अंग्रेज़ों ने 10 सितम्बर को वलीदाद खां को हराने का प्रयास किया। परन्तु उनका यह प्रयास वलीदाद के सटीक रणकौशल के आगे बौना साबित हुआ परन्तु 24 सितम्बर 1857 ई. को उनका कम्पनी के सैनिकों से पुनः घनघोर युद्ध हुआ, जिसमें अंग्रेज़ों को भारी नुकसान हुआ , लेफ्टिनेन्ट होम की मृत्यु सहित कई अंग्रेज़ अफसर इस युद्ध में काल के मुंह में समां गए । परन्तु अपने सीमित संसाधनों की वजह से वलिदाद खां की सेना को पराजय का मुंह देखना पड़ा । 29 सितम्बर को ब्रितानियों ने मालागढ़ के दुर्ग पर घेरा डाल दिया, जिसके कारण वलीदाद खां को विवश होकर अपने साथियों के साथ भागना पड़ा। परन्तु उन्होंने अंग्रेज़ों के विरुद्ध अपने युद्ध को विराम नहीं दिया उनकी मृत्यु के बारे में सही जानकारी नहीं मिलती परन्तु इतिहासकार बताते हैं कि उन्होंने अंग्रेज़ों के सामने कभी सर ना झुकाने के प्रण को आजीवन निभाया । रूहेलखंड के इस अमर शहीद को अमन पसंद की हार्दिक श्रदांजलि !