सच की तलाश में शुरू हुआ सफ़र.....मंजिल तक पहुंचेगा जरुर !!!

सच की तलाश में शुरू हुआ सफ़र.....मंजिल तक पहुंचेगा जरुर !!!
AMIR KHURSHEED MALIK

Friday, August 5, 2016

Tribute to Hiroshima and Nagasaki

एक बड़ा धमाका हुआ , लेकिन उसके बाद कहीं कुछ नज़र नहीं आ रहा था । एक धूएँ का सैलाब और आग के दहकते गोले आसमान की तरफ लपके । कई किमी का इलाका एक बड़े भूकंप की तरह हिल गया । किसी की कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था । आखिरकार पता चला कि अति विकसित एवं मानवता के पोषक होने का दम भरने वाले अमेरिका ने द्वितीय विश्वयुद्ध में अपनी जीत सुनिश्चित करने के लिए पहले परमाणू बम का दुरूपयोग कर लिया है । कई लाख लाशों के बीच से बच्चों और औरतों की हजारों लाशें सवाल कर रही थी, कि आखिर हम बेगुनाहों पर यह जुल्म क्यों किया गया ? यह तारीख 6 अगस्त 1945 तो आज भी सबको याद है । आज के ही दिन अमेरिका ने जापान के शहर हिरोशिमा पर पहला परमाणु बम गिराया था । उस वक़्त हुई तबाही के खौफनाक नजारों की बात तो जाने ही दीजिये, आज भी उस इलाके के बच्चों में परमाणू विकिरण के असर देखे जा सकते हैं । मानवता को शर्मसार करने वाली इस कार्यवाही के बाद भी अमेरिका को सुकून नहीं मिला । इसके तीन दिन बाद यानी 9 अगस्त को नागासाकी पर परमाणु बम गिराया गया । इस बर्बरता से द्वितीय विश्व युद्ध के हालात तो बदल ही गए , जापान को बर्बादी के एक लम्बे दौर से गुजरना पड़ा । अमेरिकी वायु सेना के जिस अधिकारी (राबर्ट लुइस) के विमान से यह परमाणु बम फेका गया था , उसके ही शब्दों में .....
“As the bomb fell over Hiroshima and exploded, we saw an entire city disappear. I wrote in the log of my words: “My God, what have we done?” -Robert Lewis
हिरोशिमा पर परमाणु बम गिराए जाने के बाद 13 वर्ग किलोमीटर के दायरे में जो कुछ भी था , पूरी तरह उजड़ गया था । शहर में मौजूद 60 प्रतिशत भवन तबाह हो गए थे। शहर की साढ़े तीन लाख आबादी में से एक लाख चालीस हजार लोग मारे गए थे। बहुत सारे लोग बाद में विकिरण के कारण मौत का शिकार हुए। नागासाकी में 74 हजार लोग मारे गए थे । आखिरकार जापान ने 14 अगस्त, 1945 को हथियार डाल दिए । हिरोशिमा पर गिराए गए परमाणु बम को अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति फ्रैंकलिन रूज़वेल्ट के संदर्भ में 'लिटिल ब्वॉय' कहा गया, और नागासाकी के बम को इंग्लैंड के प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल के संदर्भ में 'फैट मैन' कोडनेम दिया गया। सत्ता,सामर्थ्य, और अहंकार की अति से हुई क्षति का ज्वलंत उदाहरण हिरोशिमा और नागासाकी की तबाही में नज़र आता है । इस घोर विनाश के परिणामस्वरूप हुए नुकसान का तो आज तक भी अनुमान नहीं लगाया जा सका है । लेकिन उस दिन हुई तबाही से हमने आज भी कुछ सबक लिया हो , ऐसा भी कहीं नज़र नहीं आता ।  जापान के हिरोशिमा शहर के पीस पार्क में एक मशाल हमेशा जलती रहती है। जब तक दुनिया में व्यापक विनाश का एक भी हथियार है, यह मशाल जलती रहेगी ।हम आज भी परमाणू शक्ति को शांति की जगह हथियार के रूप में इस्तेमाल करने को तैयार हैं । काश विनाशकारी उन यादों से हम कुछ सबक ले पायें !
“If the Third World War is fought with nuclear weapons, the fourth will be fought with bows and arrows.” -Louis Mountbatten

उन लाखों बेक़सूर मृतकों को भाव भीनी श्रदांजलि !

Tuesday, May 10, 2016

SOCIAL v/s UNSOCIAL

आखिर परिवर्तन की इच्छा हम रखते ही क्यों हैं ? हम ऐसा दिखावा क्यों करते ही है कि हमको प्रगति चाहिए ? जबकि हमारी असल इच्छा सिर्फ और सिर्फ, नियत धारा के साथ स्वयं को बहने देने की होती है । कभी-कभी लगता है कि सिर्फ सरकारों का बदल जाना हमने विकास समझ रखा है । कभी इनको मौका देते हैं , कभी उनको चुन लेते हैं । हम पर कौन राज करेगा यह मौका हमारे पास है , लेकिन वो क्या करेगा , यह तय करने की समझ अभी हम पैदा नहीं कर पाए हैं ।
सामाजिक सशक्तिकरण के प्रयास तो हम करना भी नहीं चाहते , जो कर रहे हैं उनको समर्थन देने का नैतिक दायित्व भी हम निभाना नहीं चाहते । प्रकृति के साथ हुए दुराचार से निर्लज्ज आनंद की अनुभूति तो ग्रहण कर ली । अब दंड भोगने का समय आया तो आरोप-प्रत्यारोप में ही उलझा दिया । हमने तो सुधार की तरफ क़दम बढ़ाये नहीं , जो करने चले , उनको भी सिरफिरा समझ लिया । आखिर सिर्फ राजनीतिक समझ ही समझदारी का पर्याय क्यों बन गई है ? किसने किसको पछाड़ा , किसने ज्यादा भ्रष्टाचार किया , जैसे विषय ही “सोशल मीडिया” कहलाने वाले मंच पर भी #ट्रेंड बनते हैं । समाज को दिशा दे सकने लायक विषय यहाँ “अनसोशल” समझ लिए जाते है । सत्ताधारी एवं विपक्ष के पैरोकारों की तो लम्बी सूची यहाँ नज़र आती है , लेकिन अपने समाज के ही लिए दो शब्द भी बहुत भारी बन जाते हैं । अभी किसी माननीय को कुछ कह के तो देखिये , मधुमक्खी के छत्ते से हुआ आक्रमण आपको लहुलुहान कर देगा । लेकिन कभी किसी सामाजिक मुद्दे पर जोर लगा के देख लीजिये । अज़ब सी अस्पर्श्यता का बोध आपको सहना पड़ेगा ।

Tuesday, May 3, 2016

बेशर्म राजनीति

स्वस्थ्य लोकतंत्र के लिए बेहतर होता कि भारतीय राजनीति जाति-धर्म, परिवारवाद, क्षेत्रवाद आदि से जुड़े पारंपरिक तिकड़मों में उलझी ना रह कर महंगाई, भ्रष्टाचार, गरीबी-बेरोजगारी, विकास , शिक्षा आदि आम आदमी से जुड़े मुद्दों पर चर्चा करती । जिसकी कमी हमेशा नज़र आई है । दरअसल कई सुधारों के बाद भी अभी तक भारतीय जनमानस स्वयं के हित के लिए उतना जागरूक नहीं हो पाया है । आज भी हम ज़हरीले बयानों के ज़रिये ध्रुवीकरण की कोशिश हो , या बेहूदा बयानों से किसी के ज़ख्मों पर नमक छिड़कने की हरकत हो , जाने-अनजाने आसान शिकार बनते ही हैं । उकसाने की यह कोशिशे लोकतंत्र की मूलभावना के खिलाफ है । लेकिन अफ़सोस , वोट के फायदे का गणित , सही-गलत के आंकलन को हमेशा बौना साबित करता आया है । रही सही कसर चैनल की ब्रेकिंग न्यूज़ की लगातार चिल्लाती आवाज़ पूरी कर देती हैं । क्या इन नेताओं का मकसद सिर्फ दलीय राजनीति का परचम फहराना ही रह गया है ? हमारे राजनीतिक दल सिर्फ सत्ता के ख्वाब पाल कर जायज़-नाजायज़ के फर्क को अनदेखा कर हर रास्ता अपनाने को तैयार हैं । देश को रचनात्मक प्रयासों की जरुरत है , ना कि ज़हर बूझे बयानों की । नफरत को तो इन ज़हरीले बयानों से हवा दी जा सकती है , तरक्की को नहीं । विकास ,अमन और चैन के दरमियाँ ही पनप सकता है , ज़हरीले बयानों के बीच नहीं ।

Monday, April 25, 2016

आखिर मै जागरूक जो हूँ !

गाडी धोने में सैकड़ों लीटर पानी इस्तेमाल करता हूँ ।
गार्डन में पानी डालने के साथ-साथ रोड को भी नहला देता हूँ ।
एक घूँट पानी पीने के लिए भी पूरा गिलास पानी लेता हूँ ।
लेकिन , 
मै शाम होते-होते सोशल मीडिया पर एक पोस्ट पानी बचाव के सन्देश की अवश्य डालता हूँ !
आखिर मै जागरूक जो हूँ !
येन केन प्रकारेण टैक्स बचाने का हर जतन करता हूँ ।
सुविधा शुल्क देकर काम करवा लेना बेहतर मानता हूँ ।
अगर खुद कोई मौका मिले तो छोड़ता नहीं हूँ ।
लेकिन ,
मै शाम होते-होते सोशल मीडिया पर एक पोस्ट भ्रष्टाचार के विरोध में अवश्य डालता हूँ !
आखिर मै जागरूक जो हूँ !
मतदान में तो समय की बर्बादी होती है ।
राष्ट्रीय प्रतीकों को तो मै नहीं जानता ,
राष्ट्रीय संम्पत्ति को व्यक्तिगत बनाने का मौका नहीं छोड़ता ।
आन्दोलन में इसको ही निशाना बनाता हूँ ।
लेकिन,
मै शाम होते-होते सोशल मीडिया पर एक पोस्ट देशभक्ति की अवश्य डालता हूँ !
आखिर मै जागरूक जो हूँ !

Saturday, April 2, 2016

Modern Democracy

महानगर की व्यस्तम सड़क पर कुछ लोगों की नासमझी से , या फिर किसी तकनीकी खामी से लगा जाम धीरे-धीरे कई किमी तक लम्बा हो जाता है । पीछे की कतार में खड़े सैकड़ों वाहन चालकों को जाम की वजह भी पता नहीं चल पाती । जिससे उनकी बेचैनी लगातार बढती चली जाती है । कुछ देर बर्दाश्त करने के बाद उनकी झुंझलाहट सीधे हार्न पर ही निकलती है । जब कि यह अच्छी तरह से पता होता है कि उनकी यह शोर नुमा आवाज़ , जाम के असली कारक तक नहीं पहुँच पाएगी । जो कि कई किमी आगे अग्रिम पंक्ति में विराजमान है । बल्कि यह आवाज, बीच में फंसे उस जैसे अन्य बेचारों  की बेचैनी और ज्यादा बढ़ा देगी । जो स्वयं इस इस अव्यवस्था में उनसे बहुत पहले से फंसे हुए हैं । कहीं यह आधुनिक लोकतंत्र की परिभाषा तो नहीं है ?


Wednesday, March 16, 2016

मुलाक़ात से मुक्का लात तक

अक्सर हम सभी सोशल मीडिया पर बुराई की शिकायत करते हैं । हालांकि असल ज़िन्दगी में भी तमामतर स्वभाव वाले लोग मौजूद हैं । लेकिन हमारी उनसे एक साथ मुलाक़ात नहीं होती । असल ज़िन्दगी में हम अपने जैसे कुछ चुनिन्दा मित्रों के साथ , अपने ही पसंदीदा विषय पर बात करते हैं । अपनी विचारधारा और सोच के चश्में से अलग हट कर ना ही बोलना चाहते हैं , और ना ही सुनना चाहते हैं । असल ज़िन्दगी के उलट आभासी दुनिया सभी विषयों , मतों , विचारों पर सबको एक साथ अभिव्यक्ति की छूट देती है । जिसमें से कुछ सही होता है , तो कुछ गलत भी होता है । चौराहे की गप्पबाजियां संवेदनशील मुद्दों पर भी अपने चिर परिचित अंदाज़ में चाशनी लगा कर मौजूद रहती हैं । उनमे शायद यह समझने की कुव्वत नहीं रहती कि उनकी यह बात एक बड़े मंच पर बहुत तेज़ी से अपना दुष्प्रभाव छोड़ने जा रही है । दो-चार लोगों में ही सिमट कर ख़त्म होने लायक बात एक बड़े तबके तक पहुँच जाती है । तत्पश्चात यह आभासी दुनिया पूरी वास्तविकता के साथ मुक्का लात की सहूलियत देती है । इसमें यकीनन इस आभासी दुनिया का दोष नहीं है । यह उन तमाम लोगों की गलती है जो अपने वास्तविक जीवन में भी गलत ही बयान करते आये हैं । यह शायद हमारे असल समाज का सामूहिक प्रतिबिम्ब ही है, जिसकी भर्त्सना हम चाहे जैसे करें , लेकिन इस बड़ी तस्वीर के एक कोने में एक छोटा सा अक्स हमारा भी है ।

Saturday, March 12, 2016

KINGFISHER

माननीय’ तो चले गए । लेकिन “चाय” से लेकर “वाय” तक हर जगह “किंगफिशर” का ही ज़िक्र जारी है । वैसे अगर आपको ‘माननीय’ का भी पक्ष जानना है , तो ट्विटर की शरण में जाना होगा । क्योंकि आप जानते ही हैं कि विशिष्ठजनों की भड़ास या सफाई के लिए वही उचित मंच है । आखिर देश की अदालत या कानून को अपने बारे में जानकारी देना अपनी ही शान में गुस्ताखी जैसा होता है । माननीय देश की सर्वोच्च लोकतान्त्रिक संस्था का सदस्य बनते समय अपने को बिना “क़र्ज़” और बिना “संपत्ति” का घोषित कर सकते हैं , तब वो कुछ भी कर सकते हैं । तब सरकार ने उनको ‘गरीबी रेखा से नीचे वाला राशन कार्ड’ प्रदान क्यों नहीं किया ? यह भी जांच का विषय होना चाहिए । अगर तब यह “बीपीएल कार्ड” उनको दे दिया जाता , तब शायद यह गरीब माननीय देश छोड़ कर भागने को विवश नहीं होता । जय हो !

Monday, February 22, 2016

तर्क बनाम कुतर्क

कुछ तो वजह रही होगी जो हमारे शरीर में दिमाग ने दिल से ऊपर जगह पाई है । फिर भी अक्सर दिमाग के ऊपर दिल हावी हो जाता है । अब अगर दिमाग के बारे में भी दिमागदारों की बात माने , तो दिमाग का भी उपरी हिस्सा “तर्क” के लिए है। जबकि निचला हिस्सा “संवेदनाओं” के लिए है । लेकिन तर्क पर अक्सर हमारी सोच हावी हो जाती है जिससे “तर्क” बदलकर “कुतर्क” बन जाता है।

Friday, February 19, 2016

भ्रम का भ्रम

अच्छाइयां अनगिनत हैं , तो बुराइयाँ भी अनंत हैं। आप कहाँ तक तिकड़मी हिसाब में उलझियेगा। आप तो बस यह तय कर लीजिये कि आपको क्या चाहिए ? आप सकारात्मकता बटोरते चलिए, या फिर नकारात्मकता में फिसलते रहिये। यह आभासी दुनिया भी हमारी चिरपरिचित असली दुनिया से कुछ बहुत अलग नहीं बन सकती। ऐसे में यह नियम यहाँ भी लागू होता है। जिस तरह यहाँ पर अपनी अच्छाइयों का ढिंढोरा पीटने का चलन जोरो पर है ,उसी तरह अपनी बुराइयों को चाहे-अनचाहे बयाँ कर जाने की मजबूरी भी चलन में है। अपने को उच्चतर साबित करते-करते निम्नतर स्तर पर उतरने की होड़ सी लगी है । हम ही सही हैं ऐसा सुनने की आदत डाल लीजिये । या फिर बहुत कुछ गलत सुनने को तैयार हो जाइये । अपनी आवाज़ बुलंद करने को सोशल मीडिया ने मंच तो दिया , कुछ अच्छी आवाजें भी उठी , सुन कर अच्छा लगा । लेकिन बहुतायत सुनने और समझने में अटपटी ही नज़र आई ।  एक बात अक्सर ही हम अपने बड़े-बुजुर्गों से सुनते आये हैं कि यह दुनिया , कुछ अच्छे लोगों की ही बदौलत क़यामत से महफूज़ है । जिस दिन यह चुनिन्दा अच्छे लोग अलविदा कह देंगे , यह दुनिया प्रलय की गिरफ्त में होगी । पता नहीं क्यों , लेकिन इस आभासी दुनिया के लिए भी मुझे यही भ्रम पाल लेने का मन करता है । बस यह कुछ अच्छी आवाज़े इस आभासी दुनिया को बचाए हुए हैं , वरना यह सब कुछ ख़त्म हो चुका होता ।  यह भ्रम पालने का भ्रम कितना उचित है या कितना अनुचित , यह तो मै नहीं जानता । लेकिन दिल को बहलाने को तो ग़ालिब यह ख्याल अच्छा ही है । अच्छे की तलाश में लगे सभी अग्रजों की जय हो !

Monday, February 15, 2016

हवा बिकती है , बोलो ......खरीदोगे ?

कुछ चीज़ें हमको प्रकृति ने बिलकुल मुफ्त , दिल खोल कर दी है । लेकिन हमने अपने अप्राकृतिक व्यवहार से इनको भी अपनी पहुँच से दूर कर दिया है । हवा-पानी कुदरत की एक अनमोल देन है । जिसके बिना हमारे अस्तित्व की कल्पना ही बेमायने है । लेकिन मनुष्य ने अपने जायज़-नाजायज़ क्रियाकलाप से इन दोनों का अंधाधुंध दोहन ही नहीं किया , अपने आज के व्यवसायिक हित को साधने के लिए हम सबके कल को भयावह स्थिति में पहुंचा दिया है। महानगरो से लेकर सुदूर गाँव तक हम पानी की कमी का सामना कर रहे हैं । सिमटते पोखर-तालाब से पानी तो गायब हुआ ही , बोतलबंद पानी की ‘नाजायज़ जरुरत’ एक ‘बड़ी ज़रूरत’ बनती चली गई । आज हम कुदरत की अनमोल लेकिन मुफ्त सौगात पानी खरीदने को  स्वास्थ्य जागरूकता या फिर लाइफस्टाइल मान कर स्वीकार कर चुके हैं । हमारे इस समर्पण ने हमारे सामने अगली चुनौती की भूमिका बांधनी शुरू कर दी है । दुनिया के एक कोने से हवा बेचने की बहुत छोटी सी खबर आई । इतनी छोटी की हम सब उसको नज़र अंदाज़ कर गए । यहाँ पर ध्यान देने की बात यह है कि चाइना के उस शहर में में प्रदुषण का स्तर हमारे अपने देश की राजधानी से लगभग आधा है । ऐसे में जिस खतरनाक स्थिति की ओर हम बढ़ रहे हैं , उसकी कल्पना भी मुश्किल है । पानी के बढ़ते बाज़ार के बीच आने वाला कल कहीं हवा के संभावित बाज़ार की दस्तक तो नहीं दे रहा । जैसा  कि साफ़ दिख रहा है कि पानी के मसले पर हम आज तक नहीं संभल पाए । ऐसे में हवा के बारे में इस हलकी सरसराहट को भी हम यकीनन हवा में ही उड़ायेंगे । होना भी चाहिए , आखिर हम प्रगति की ओर अग्रसर हैं । प्रकृति का वजूद हम उस हद तक नकारेंगे , जब तक प्रकृति हमको पूरी तरह नकार नहीं देती । नकारने की पराकाष्ठा का हमारा-आपका यह इंतज़ार शायद प्रलय की आहट के साथ ख़त्म होगा । इसलिए आईये जब तक तो  जश्न मनाएं , या फिर कुछ सुधरने-सुधारने के लिए जुट जाएँ ।      

Sunday, January 31, 2016

एक ऐसा करिश्माई व्यक्तित्व

एक ऐसा करिश्माई व्यक्तित्व , जिसने एक मुट्ठी भर नमक उठाकर स्थापित साम्राज्यवाद को चुनौती देने का काम कर दिया । एक ऐसा अग्रज जिसके हर आन्दोलन, जन आन्दोलन बन गए । एक ऐसा महात्मा जिसने अपनी मज़बूत आवाज़ भी शान्ति से बुलंद की । ऐसे ही थे हमारे "बापू" , जिन्होंने किसी दूसरे को सलाह देने से पहले उसका प्रयोग स्वंय पर किया । उन्होंने बड़ी से बड़ी मुसीबत में भी अहिंसा का मार्ग नहीं छोङा। आज दुनिया उनको सत्य और अहिंसा के महानायक के रूप में पहचानती है । भारत की आज़ादी में उनके महती योगदान को अनदेखा नहीं किया जा सकता । गाँधी जी सादा जीवन उच्च विचार के समर्थक थे, और इसे वे पूरी तरह अपने जीवन में लागू भी करते थे। उनके सम्पूर्णं जीवन में उनके इसी विचार की छवि प्रतिबिम्बित होती है। यहीं कारण है कि उन्हें 1944 में नेताजी सुभाष चन्द्र ने राष्ट्रपिता कहकर सम्बोधित किया था। आज हमारे बीच गांधी जी नहीं हैं । लेकिन "बापू" के विचार देश-दुनिया में अपनी जगह बना चुके हैं । अधिकतर उनको और उनके विचार के महत्व को जानते-मानते हैं । वहीँ कुछ नें उनके विरोध को ही उनके विचारों से लड़ने का रास्ता समझ लिया है । वो अपनों के लिए गैरों से लड़े , गैर उनके सम्मान में अपने मुल्कों में स्मारक बनवा रहे हैं । अपने , अपने ही देश में बने स्मारकों और विचारों को नुकसान पहुँचाने में व्यस्त हैं ।
यह पहला अवसर नहीं था जब उनकी उपेक्षा की जा रही है , इतिहास में ऐसे अनेक अवसर आए थे, जब गांधीजी को अकेले छोड़ दिया गया । लेकिन अपनी शांतिपूर्ण वैचारिक दृढ़ता के कारण उन्होंने हर विपरीत परिस्थितियों में स्वयं को पहले से ज्यादा मजबूती से स्थापित किया । वह अपने विचारों से कभी कोई समझौता नहीं करते थे । अपनी अंतरात्मा की आवाज़ को उन्होंने सदैव तरजीह दी । जो आज भी उनके विचारधारा के रूप में जिंदा हैं । इसके लिए उन्हें निश्चित ही बड़ा संघर्ष करना पड़ा होगा - पहले अपने से और फिर परिवार से और बाद में समाज से । अफ़सोस यह संघर्ष आज भी जारी है । विनम्र श्रदांजलि ।

Friday, January 15, 2016

धर्म के स्वघोषित झंडाबरदार

ना चाहते हुए भी आज एक सवाल पूछने से अपने को रोक नहीं पा रहा हूँ । क्या धर्म की आड़ में हमको कानून तोड़ने की गुप-चुप इज़ाज़त हासिल है ? सवाल अटपटा जरुर लगता है , लेकिन अगर नज़र दौडाएं तो हमको इसमें कडवी सच्चाई नज़र आती है ।धार्मिक जुलूसों में दौड़ते दुपहिया वाहनों पर तीन से लेकर चार तक तो समाने की कोशिश हो, या फिर सड़क पर रास्ता बंद करके होते धार्मिक आयोजन हों , कानून की खिल्ली सरेआम कानून के रखवालों के सामने ही उडती नज़र आती है। इसके साथ ही इन तथाकथित धार्मिकों के चेहरे पर पुलिसिया डंडे को परास्त कर देने का एक अनूठा दंभ भी अक्सर ही नज़र आता है । कई बार यह उन्मादित आचरण दुर्घटनाओं का कारण भी बनते है ।
अवैध क़ब्ज़ा करके दिन ब दिन पनपते आस्था के केन्द्रों की बढती संख्या भी उन परम धार्मिक चेहरों के लिए सवाल ही खड़ा करती हैं । यह लोग धर्म के नाम पर अपनी जान देने का तो दावा कर जाते हैं , पर अपनी आस्था के केंद्र के लिए अपनी निज़ी जगह दान करने को तैयार नहीं होते । शायद हम सबने मान लिया है कि इसके लिए सरकारी जगह पर क़ब्ज़ा ही न्यायोचित तरीका है उदाहरण ढेरों हैं , लेकिन यहाँ पर सिर्फ मूल भावना तक पहुँचने के लिए इन उदाहरणों का ज़िक्र किया गया है ।
अगर बात घर्म की चलती है तो यह मान के चला जाता है कि यह हम सबको सही रास्ते पर चलने की राह दिखाएगा । ऐसे में जब उसकी ही आड़ में बेशर्मी के साथ कानून का उल्लंघन होता नज़र आता है । तब यह सवाल उठना स्वाभाविक ही है कि, क्या धर्म कानून के कायदे से अलग किसी प्रथा का समर्थन करता है ? या फिर

धर्म के स्वघोषित झंडाबरदार ही इस परिस्थिति के ज़िम्मेदार हैं ?