कुछ चीज़ें हमको प्रकृति ने बिलकुल मुफ्त , दिल खोल कर दी है । लेकिन हमने अपने
अप्राकृतिक व्यवहार से इनको भी अपनी पहुँच से दूर कर दिया है । हवा-पानी कुदरत की
एक अनमोल देन है । जिसके बिना हमारे अस्तित्व की कल्पना ही बेमायने है । लेकिन
मनुष्य ने अपने जायज़-नाजायज़ क्रियाकलाप से इन दोनों का अंधाधुंध दोहन ही नहीं किया
, अपने आज के व्यवसायिक हित को साधने के लिए हम सबके कल को भयावह स्थिति में
पहुंचा दिया है। महानगरो से लेकर सुदूर गाँव तक हम पानी की कमी का सामना कर रहे
हैं । सिमटते पोखर-तालाब से पानी तो गायब हुआ ही , बोतलबंद पानी की ‘नाजायज़ जरुरत’
एक ‘बड़ी ज़रूरत’ बनती चली गई । आज हम कुदरत की अनमोल लेकिन मुफ्त सौगात पानी खरीदने
को “स्वास्थ्य जागरूकता” या फिर “लाइफस्टाइल” मान कर स्वीकार कर चुके हैं । हमारे इस समर्पण ने हमारे सामने अगली चुनौती की
भूमिका बांधनी शुरू कर दी है । दुनिया के एक कोने से “हवा” बेचने की बहुत छोटी सी खबर आई । इतनी छोटी की हम सब उसको नज़र अंदाज़ कर गए ।
यहाँ पर ध्यान देने की बात यह है कि चाइना के उस शहर में में प्रदुषण का स्तर
हमारे अपने देश की राजधानी से लगभग आधा है । ऐसे में जिस खतरनाक स्थिति की ओर हम
बढ़ रहे हैं , उसकी कल्पना भी मुश्किल है । “पानी” के बढ़ते बाज़ार के बीच आने वाला कल कहीं “हवा” के संभावित बाज़ार की दस्तक तो नहीं दे रहा । जैसा कि साफ़ दिख रहा है कि पानी के मसले पर हम आज तक
नहीं संभल पाए । ऐसे में “हवा” के बारे में इस हलकी “सरसराहट” को भी हम यकीनन “हवा” में ही उड़ायेंगे । होना भी चाहिए , आखिर हम प्रगति की ओर अग्रसर हैं ।
प्रकृति का वजूद हम उस हद तक नकारेंगे , जब तक प्रकृति हमको पूरी तरह नकार नहीं
देती । नकारने की पराकाष्ठा का हमारा-आपका यह इंतज़ार शायद प्रलय की आहट के साथ
ख़त्म होगा । इसलिए आईये जब तक तो जश्न
मनाएं , या फिर कुछ सुधरने-सुधारने के लिए जुट जाएँ ।
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