अरे भैया हम तनिक
कनफ़्युसिया गए हैं ! बात कुछ हज़म नहीं हो रही , आखिर होती भी कैसे ? आखिर विरोधाभासी तड़का जो लग गया था ! चलिए मान लेते हैं कि मनरेगा देश के लिए हितकारी नहीं है ! हम कुछ देर के लिए विश्व बैंक की मनरेगा के
सकारात्मक पक्ष को उभारती रिपोर्ट को भी भूल जाते हैं ! लेकिन भाई अगर सर्वोच्च पद
पर बैठ कर हमें पता लग गया है कि मनरेगा
देश के लिए ठीक नहीं है तो हम तत्काल प्रभाव से बंद क्यों नहीं कर देते ? आखिर हम
सिर्फ कांग्रेस को जिम्मेदार ठहराने की जिद में एक गलत योजना को को क्यों चलाना
चाहते हैं ? यकीनन कांग्रेस से देश ज्यादा महत्वपूर्ण है ! ऐसे में क्यों हम देश
हित को पीछे रख कर सिर्फ कांग्रेस की बलिहारी देश का इतना नुकसान करते रहने को
विवश हैं ? शायद आप महानुभवों के पास जवाब हों ..... तनिक हमरा ज्ञानवर्धन भी कर
दीजे !
सच की तलाश में शुरू हुआ सफ़र.....मंजिल तक पहुंचेगा जरुर !!!

AMIR KHURSHEED MALIK
Friday, February 27, 2015
भ्रूण हत्या - एक सामाजिक अपराध
भारत को अपनी अजन्मी बेटियों के भ्रूण हत्या के असामाजिक
कृत्य को अपने सामाजिक दायरे से जुदा ना कर पाने का दंश लगातार बर्दाश्त करना पड
रहा है। हर साल ऐसी 6 लाख बच्चियां जन्म नहीं ले पातीं जिन्हें देश के औसत
लिंग अनुपात के हिसाब से दुनिया में आना था। देश में पुरूष-महिला लिंगानुपात के
बीच की खाई लगातार बढ़ती ही जा रही है। विश्व स्तर पर हुए एक हालिया अध्ययन के
मुताबिक आज हमारे देश में एक हजार पुरुष की तुलना में महिलाओं की संख्या 940 रह गई है। यह अंतर दिन-प्रतिदिन
बढ़ता ही जा रहा है। लड़कियों की घटती संख्या और शिक्षा तथा रोज़गार के क्षेत्र में
उनकी बढती सहभागिता के बावज़ूद हमारे सामाजिक ढांचे में लड़कियों और स्त्रियों की
हैसियत में कोई महत्वपूर्ण बदलाव नहीं आ पाया है । जिस देश में नारी रूप में अनेक
देवीयों की पूजा अर्चना की जाती है। उस देश में बेटीयों को अपने अस्तित्व के लिए
संर्घष करना पङ रहा है। बेटा वंश परंपरा को आगे बढ़ाता है, बेटा
मां-बाप के साथ रहकर बुढ़ापे का सहारा बनता है ,जैसी दलीलें पुरुष प्रधान समाज ने
विकसित की । वही सामाजिक ताने बाने ने लड़कियों के लिए भरण पोषण, दहेज़ के साथ साथ शारीरिक
सुरक्षा की भी चिंता पैदा कर दी । इन्ही सब के मध्य बालक-बालिका के बीच पनपता भेदभाव
लोगों के मन से निकल कर आंकड़ों के भयावाह स्वरुप में हमारे सामने आ खड़ा हुआ है ।
Wednesday, February 25, 2015
Tuesday, February 24, 2015
आतंकवाद - अनसुलझी पहेली
विश्व के सामने
आतंकवाद एक बड़ी समस्या बन कर आ खड़ा हुआ है । विश्व अर्थव्यवस्था का एक बड़ा हिस्सा आतंकवाद
को फैलाने और रोकने के नाम पर खर्च होता है । अनगिनत निर्दोषों की हत्या और बहुमूल्य संपत्ति का नुकसान मात्र राजनितिक
बयानबाजियों के बाद भुला दिया जाता है । दावे अनगिनत किये जाते हैं, पर वास्तविकता यही है की असल समस्या दिन ब दिन विकराल रूप धारण करके हमारे
सामने मौजूद है । इससे निज़ात पाने का न तो अब तक आत्मबल जुटा पाये हैं, और न ही पूरी शक्ति से इस कुचक्र को कुचलने को कोई रणनीति ही बना पाये हैं।
प्रत्येक आतंकी घटना की पुनरावृति के बाद हमारे शासक उन्हीं घिसे-पिटे शब्दबाणों से प्रहार करते हैं, जैसे यह भी रस्म
अदायगी का एक आवश्यक उपक्रम भर रह गया है। जिस अमेरिका ने कभी मजहबी आतंकवाद को रूस के
खिलाफ इस्तेमाल किया और इसे संरक्षण भी दिया था। वो खुद उसी आतंकवाद का शिकार हुआ।
मजहब आधारित आतंकवाद के खिलाफ अभियान में अमेरिका को खरबों डॉलर झोंकना पड़ा।
ओसामा बिन लादेन का सफाया करने में सफलता जरूर मिली, लेकिन आतंकवाद के खिलाफ खरबों डॉलर झोंकने से
एक खतरनाक स्थिति यह पैदा हुई , कि अमेरिकी अर्थव्यवस्था लड़खड़ा गई। आज इस अमेरिकी
गलती को आज सारा विश्व भुगत रहा है । भारत के लिए यह मामला कुछ ज्यादा ही
महत्वपूर्ण हो जाता है । भारत से लगे देशों में आतंकवाद की फसल दिन दुनी – रात
चौगुनी तरक्की कर रही है । सूचनाओ को इकठ्ठा करने की लम्बी चौड़ी कवायद के बाद भी
हम हादसों को रोक नही पा रहे हैं ।
Monday, February 23, 2015
गौ हत्या : एक जहरीली शरारत
![]() |
(Amir Khursheed Malik) |
गाय का क़त्ल उसके
मांस के निर्यातको के साथ-साथ चमड़े,हड्डी आदि के व्यापारियों की काली करतूत का हिस्सा है |एक आम भारतीय मुसलमान गाय के मांस को उसके साथ
जुडी श्रद्दा और अपने धर्म में दी गई हिदायतों के मद्देनज़र इस्तेमाल नहीं करता |
कुछ शरारती लोग जुर्म
करने से बाज़ नहीं आते |पर उनके खिलाफ सख्त कार्यवाही की हिमायत पूरा मुस्लिम समाज करता है |
अब सवाल आता है
गाय के चमड़े का कारोबार करने वाले क्या गौ हत्या न कराने का संकल्प लेकर इस पेशे
से हो रहे भारी मुनाफ़े को छोड़ने के लिए तैयार हैं ? क्या दूध न देने वाली गायों के लिए हम आर्थिक
लाभ के नज़रिए से हटकर गौशालों की व्यवस्था करने को तैयार हैं ? और इन सबसे बड़ा सवाल ……. क्या हमारी सरकार गौरक्षा एवं विकास विषय को
अपनी प्राथमिकता सूची में लाकर केन्द्रीय कानून बनाकर गौहत्या पर पूर्ण प्रतिबन्ध
लगाने को तैयार है ?
Sunday, February 22, 2015
बलात्कार के अन्य कारक
![]() |
Amir Khursheed Malik |
एक आंकलन के अनुसार बलात्कार
की घटनाओं में से 60 से 65 फीसदी खुले में
शौच गयीं महिलाओं के साथ होती है। यूपी पुलिस के अनुसार उनके पास आने
वाले मामलों में ६० फीसदी से अधिक ऐसे ही मामले होते है । एमनेस्टी इंटरनेशनल की रिपोर्ट भी कुछ इसी तरह का
निष्कर्ष देती है । विश्व स्वास्थ्य संगठन की अगर मानें तो भारत में आज भी साठ करोड़ लोग खुले में शौच जाते
हैं, जिसमें आधी
संख्या महिलाओं की है। भारत में खुले में शौच की प्रवृत्ति को रोकने और घर के ही
कोने में शौचालय बनवाने के लिए लोगों को प्रोत्साहित करने के लिए 1999 से ही ‘निर्मल भारत
अभियान’ चलाया जा रहा है। परन्तु अभी तक इस योजना के लाभ को आंकना
बाकी है । सरकारी दावे तो बहुत हुए , परन्तु वास्तविकता इस से कहीं अलग प्रतीत
होती है । . केंद्र सरकार का दावा है कि देश की 43 फीसदी आबादी ही शौचालय से वंचित
है, पर एक एन.जी.ओ. से जुड़े व्यक्ति का कहना है कि
देश की सिर्फ 30 फीसदी आबादी को ही शौचालय सुलभ हो सका है।
Friday, February 20, 2015
Tuesday, February 17, 2015
आतंकवाद : एक बड़ी समस्या
विश्व के सामने
आतंकवाद एक बड़ी समस्या बन कर आ खड़ा हुआ है । विश्व अर्थव्यवस्था का एक बड़ा हिस्सा आतंकवाद
को फैलाने और रोकने के नाम पर खर्च होता है । अनगिनत निर्दोषों की हत्या और बहुमूल्य संपत्ति का नुकसान मात्र राजनितिक
बयानबाजियों के बाद भुला दिया जाता है । दावे अनगिनत किये जाते हैं, पर वास्तविकता यही है की असल समस्या दिन ब दिन विकराल रूप धारण करके हमारे
सामने मौजूद है । इससे निज़ात पाने का न तो अब तक आत्मबल जुटा पाये हैं, और न ही पूरी शक्ति से इस कुचक्र को कुचलने को कोई रणनीति ही बना पाये हैं।
प्रत्येक आतंकी घटना की पुनरावृति के बाद हमारे शासक उन्हीं घिसे-पिटे शब्दबाणों से प्रहार करते हैं, जैसे यह भी रस्म
अदायगी का एक आवश्यक उपक्रम भर रह गया है। जिस अमेरिका ने कभी मजहबी आतंकवाद को रूस के
खिलाफ इस्तेमाल किया और इसे संरक्षण भी दिया था। वो खुद उसी आतंकवाद का शिकार हुआ।
मजहब आधारित आतंकवाद के खिलाफ अभियान में अमेरिका को खरबों डॉलर झोंकना पड़ा।
ओसामा बिन लादेन का सफाया करने में सफलता जरूर मिली, लेकिन आतंकवाद के खिलाफ खरबों डॉलर झोंकने से
एक खतरनाक स्थिति यह पैदा हुई , कि अमेरिकी अर्थव्यवस्था लड़खड़ा गई। आज इस अमेरिकी
गलती को आज सारा विश्व भुगत रहा है । भारत के लिए यह मामला कुछ ज्यादा ही
महत्वपूर्ण हो जाता है । भारत से लगे देशों में आतंकवाद की फसल दिन दुनी – रात
चौगुनी तरक्की कर रही है । सूचनाओ को इकठ्ठा करने की लम्बी चौड़ी कवायद के बाद भी
हम हादसों को रोक नही पा रहे हैं ।
Saturday, February 14, 2015
राजनीति में बदलाव की बयार
‘आप’ के उदय के साथ ही देश की राजनीति में अंदर ही अंदर बदलाव की बयार तेज हो गई है।
भ्रष्टाचार के विरोध में बही बयार में नई किस्म की राजनीति का बिगुल आम आदमी
पार्टी ने बजाया ।अन्ना हजारे के नेतृत्व में जन लोकपाल आंदोलन से उपजी
परिस्थितिओं से उत्साहित अरविन्द केजरीवाल ने जनाक्रोश को राजनितिक अमलीजामा
पहनाने में कोई देर नहीं की । भ्रष्ट राजनीति और सुस्त शासन के गठजोड़ को तोड़ने के
वायदे लेकर चुनाव मैदान में उतरे केजरीवाल को दिल्ली की गद्दी तक पहुचने में
अप्रत्याशित सफलता मिली । ऐसे में इस नई राजनीति के असर को नज़र अंदाज़ करना
राजनीतिक विश्लेशको के साथ-साथ स्थापित धुरंधरों के लिए भी मुश्किल हो रहा है । कांग्रेस जहाँ राहुल गांधी को इन बदली
परिस्थितियों में बेहतर ढंग से प्रस्तुत करने में असफल साबित हुई है , वहीँ भाजपा को भी संघ से ज्यादा सतर्क हो
कर रणनीति अपनाने का निर्देश मिल चूका है । कई जगह भाजपा और कांग्रेस के नेता आप
के तौर-तरीकों को अपनाते नज़र आरहे है । जिससे जनता अगले चुनावों में उनको इस कसौटी
पर भी खरा मान सके ।आप पार्टी ने भारतीय राजनीति में प्रचलित धारणाओं को तोड़ने का
काम किया है। जिसके साथ सामंजस्य बैठाना पुरानी पार्टियों के लिए आसान काम तो नहीं
होगा ।
मोदी की आक्रामक
प्रचार शैली भी भाजपा को फायदा नहीं पहुंचा पाई । भ्रष्टाचार बनाम विकास के नारे
की तर्ज़ पर भाजपा दिल्ली को वो उम्मीद नहीं दिखा पाई जो पिछले लोकसभा चुनाव में पूरे
देश में आसानी से प्रभाव जमा गई थी । दिल्ली में अरविन्द केजरीवाल की आम राजनीति
ख़ास को बढ़ने से रोकने में कामयाब हो गई । भाजपा ने सीटें तो गंवाई ही , साथ ही “आप”
के के इस चमत्कार का सन्देश पूरे देश में जाने की चिंता भी उसके लिए पैदा हो गई । सबको
परख चुकी जनता ने एक नई पार्टी को भरपूर मौका देने का निर्णय लिया । जनसंपर्क में
माहिर भाजपा जैसी पार्टी भी आप के इस नए फंडे से विस्मित नज़र आ रही है।वर्तमान
परिस्स्थितियों में भाजपा अपनी आक्रामक शैली को पुनः आधुनिक तरीकों से लैस करती
नज़र आ रही है ।सोशल मीडिया की भूमिका को हालांकि मोदी समर्थक अपनाते रहे हैं ।पर
केजरीवाल के समर्थन में जुड़े युवा मतदाताओं का जुटना भाजपा के लिए चिंता का सबब
जरूर बन गया है । आने वाले चुनावों में भाजपा मोदी नामक वैतरणी के सहारे पार होने
का आत्मबल दिखा रही है , लेकिन कांग्रेस की खामियों से उत्साहित भाजपा आम आदमी
पार्टी के नए तेवरों से चिंतित जरुर है।
कांग्रेस इन हालातो में सबसे ज्यादा नुक्सान में नज़र आ रही है। दिल्ली विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की हार ने इसके शीर्ष
नेतृत्व को अंदर तक झकझोर दिया है। एक ओर भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र
मोदी की आक्रामक प्रचार शैली तो दूसरी ऒर आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल
को जनता का अभूतपूर्व समर्थन,दोनों ही स्थितियां पार्टी में कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल
गांधी को मैदान में बने रहने की दावेदारी को
नुकसान पहुंचा रही हैं। ऐसे में सर्वाधिक कसरत की जरुरत कांग्रेस को ही है । लोकसभा
चुनाव के बाद दिल्ली विधान सभा चुनावों में भी बुरी तरह हुई हार ने आगामी खतरों से
उसे आगाह कर दिया है । युवराज राहुल को लेकर जो सनसनी कभी भारतीय मीडिया के एक पक्ष
ने पैदा की थी वह मोदी और केजरीवाल की चमक से लगभग खत्म सी हो गई है।
आम आदमी पार्टी ने भारतीय राजनीति में प्रचलित धारणाओं को तोड़ने का काम
किया है। यह स्पष्ट है कि पार्टी ने अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचने के अपने लक्ष्य
को प्राप्त करने के लिए मीडिया का खूबसूरती से इस्तेमाल किया है। हालांकि भारतीय
राजनीतिक पार्टियां पारंपरिक मीडिया और होर्डिंग्स पर अपने प्रचार के लिए जमकर
पैसे बहाती रही है, आप पार्टी ने इस
मोर्चे पर एक उदाहरण पेश किया है। पार्टी का निर्णय कि वह सोशल मीडिया और
डोर-टू-डोर कैंपेन पर ज्यादा जोर देगी, कारगर नज़र आरहा है । इलेक्ट्रॉनिक मीडिया
और प्रिंट मीडिया पर विज्ञापन के खर्च को कम से कम करने का प्रयास किया । एक सर्वे
के अनुसार, युवा मतदाताओं से
सोशल मीडिया पर चर्चा बेहतर साबित होगी । क्योंकि ये डिजिटल माध्यम से किसी अन्य
माध्यम की अपेक्षा ज्यादा परिचित हैं।शायद यही वजह है की इस युवा वर्ग के बीच भाजपा के प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेन्द्र
मोदी के सोशल मीडिया के प्रचार की बदौलत आज वह अपने समकक्ष प्रत्याशियों से कहीं
आगे आ खड़े हुए हैं । लेकिन इस बढ़त को आम आदमी पार्टी के कैम्पेन से नुकसान पहुँचा है । हालांकि, यह सच है कि अकेले सोशल मीडिया पर प्रशंसकों की
संख्या से चुनाव नहीं जीते जा सकते हैं। लेकिन इस बात से भी इनकार नहीं किया जा
सकता कि इस रणनीति से अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचने और उनकी समस्याओं को जानने
में मदद मिलती है ।जोकि चुनावी समर में अदभुत परिणाम देती है ।इसकी एक बानगी हम इस
दिल्ली चुनाव में देख ही चुके हैं ।जिसने तमाम चुनावी विश्लेषकों को दांतों तले ऊँगली
दबाने को मजबूर कर दिया ।
अब अगर आम आदमी
पार्टी के सत्ता के छोटे से अनुभव की बात करें तो नज़र में आता है की अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली में सत्ता संभालते
ही अपने वो दो वादे पूरे कर दिए थे , जिस पर राजनीतिक दलों से लेकर दिल्ली के
लोगों की भी नजर थी, मुफ्त पानी और आधी कीमत पर बिजली। अरविंद केजरीवाल के फैसले
लेने के इस तेज अंदाज ने लोगों का दिल भी जीत लिया था । देखना है कि यह नया कार्यकाल
भी पिछले कार्यकाल की तरह कुछ नया परोस पाने में कामयाब होगा ।हालांकि इन वायदों
को पूरा करने की कीमत सरकारी सब्सिडी से जाएगी ।लेकिन सैकड़ों सरकारी खर्चो से चल
रही योजनाओ के बनिस्बत इस सब्सिडी का लाभ सीधे आम आदमी तक पहुचने की उम्मीद की जा
रही है । जिसका सीधा लाभ आने वाले समय में केजरीवाल को मिल सकता है ।साथ ही पूरा
ना कर पाने का नुकसान भी केजरीवाल को ही उठाना पड़ेगा । ये फैसले ‘आप’ के प्रमुख चुनावी मुद्दे रहे हैं। मजबूत राजनीतिक संकल्प के बिना इन विषम
स्थितियों से पार पाना “आप” के लिए आसान भी नहीं होगा ।
आम आदमी
पार्टी (आप) ने अपनी पहली राजनीतिक धमक से ही भाजपा और कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय
पार्टियों को नया पाठ पढ़ा दिया है। राष्ट्रीय राजधानी की इस नवोदित पार्टी ने महज दो
साल के अंदर ही अपनी विशिष्ट पहचान बना ली है । कुछ अलग तरह कि राजनीति करने का
दावा करने के बाद उसे अमलीजामा पहनाने कि कोशिशे अच्छा समां बना रही है । लेकिन
अपने नए और अनुभवहीन मंत्री और कार्यकर्ताओं का खामियाजा भी केजरीवाल को भुगतना
पड़ेगा । जनता महंगाई और भ्रष्टाचार से छुटकारे के लिए आप का साथ दे तो रही है , पर
उनकी अपेक्षाए काफी बढ़ चुकी हैं ।और इन सबका पूरा हो पाना आसान नहीं दीखता । बहरहाल कुछ भी कहिये ,
आम आदमी पार्टी की कामयाबी और उनके
मनसूबे देख कर पूरे देश में उससे जुड़ने की होड़ मच गई है। लगभग सभी दलों के “ख़ास” में “आम” दिखने की होड़ नज़र आने लगी है । जोकि
लोकतंत्र के लिए एक अच्छा संकेत हो सकता है ।
Thursday, February 12, 2015
एक सकारात्मक जीत
पचास फीसदी से ज्यादा वोट
पाकर 70 में से 67 सीटें जीतने वाली
पारी “आप” की जीत को सकारात्मक जीत ही माना जाएगा । एक ऐसी जीत जिसमें सभी वर्गों, सभी जातियों का वोट केजरीवाल के हिस्से में ही आया । एक बड़ा
वर्ग जो पुराने दलों की वडा खिलाफी से तंग आ चुके थे , उन्होंने ईमानदारी के आईने
में केजरीवाल को परखना ही बेहतर समझा । इसी वजह से लोकसभा चुनावों और बाद के
विधानसभा चुनावों में चली “मोदी लहर” को “केजरी झाड़ू” से जबरदस्त शिकस्त खानी पड़ी ।जहाँ बीजेपी एक शर्मनाक हार
के साथ पिछड गई , वहीँ कांग्रेस तो अपना वजूद ही खो बैठी ।
उम्मीदों की लम्बी चौड़ी
फेरहिस्त तो अरविन्द केजरीवाल का प्लस पॉइंट बनी ही ,बीजेपी ने ही बीजेपी को हराने
में कम योगदान नही किया ।बीजेपी नेता केजरीवाल को कीड़ा, बंदर, मदारी, चोर, हरामखोर, हरामजादा, झूठा, भगोड़ा बता रहे
थे। सब के सब केजरीवाल की 49 दिन की सरकार को तो कोस रहे थे लेकिन यह नहीं बता रहे
थे कि आठ महीने के राष्ट्रपति शासन के दौरान दिल्ली की जनता के लिए उन्होंने क्या
किया ? खुद प्रधानमंत्री कभी केजरीवाल को नक्सली तो कभी अराजक कह कर इस नकारात्मक
प्रचार का हिस्सा बनते नज़र आये । उधर केजरीवाल मुफ्त पानी, मुफ्त वाई फाई, आधे दाम पर बिजली,
49 दिनों में बंद हो गयी रिश्वतखोरी की बात करते रहे। इन बातो पर बीजेपी खिल्ली
उड़ाने के अंदाज़ में ही नज़र आई । इन सबके बीच अचानक ही किरण बेदी का आना भी भाजपा
के पुराने धुरंधरों के लिए बेचैनी लेकर आया । जिसका असर टंडन के विद्रोह से लेकर
अन्दुरुनी खेमे में कई अवसरों पर नज़र आया ।
एक बड़ी जीत के साथ सत्ता में आये अरविन्द केजरीवाल के ऊपर दबावों और उम्मीदों का बोझ भी कम नही है । 50 फीसदी से अधिक मत पाए केजरीवाल को अपने इस दायित्व को निभाने के लिए सशक्त टीम की जरुरत होगी । जिसको लेकर कई शंकाएं भी चल रही हैं । परन्तु केजरीवाल पर का आत्म विश्वास देखकर लगता है कि वह यह सब संभाल पायेंगे ।
एक बड़ी जीत के साथ सत्ता में आये अरविन्द केजरीवाल के ऊपर दबावों और उम्मीदों का बोझ भी कम नही है । 50 फीसदी से अधिक मत पाए केजरीवाल को अपने इस दायित्व को निभाने के लिए सशक्त टीम की जरुरत होगी । जिसको लेकर कई शंकाएं भी चल रही हैं । परन्तु केजरीवाल पर का आत्म विश्वास देखकर लगता है कि वह यह सब संभाल पायेंगे ।
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