कुछ तो वजह रही होगी जो हमारे शरीर में दिमाग ने दिल से ऊपर जगह पाई है । फिर भी अक्सर दिमाग के ऊपर दिल हावी हो जाता है । अब अगर दिमाग के बारे में भी दिमागदारों की बात माने , तो दिमाग का भी उपरी हिस्सा “तर्क” के लिए है। जबकि निचला हिस्सा “संवेदनाओं” के लिए है । लेकिन तर्क पर अक्सर हमारी सोच हावी हो जाती है जिससे “तर्क” बदलकर “कुतर्क” बन जाता है।
सच की तलाश में शुरू हुआ सफ़र.....मंजिल तक पहुंचेगा जरुर !!!

AMIR KHURSHEED MALIK
Monday, February 22, 2016
Friday, February 19, 2016
भ्रम का भ्रम
अच्छाइयां
अनगिनत हैं , तो बुराइयाँ भी अनंत हैं। आप कहाँ तक तिकड़मी हिसाब में उलझियेगा। आप
तो बस यह तय कर लीजिये कि आपको क्या चाहिए ? आप सकारात्मकता बटोरते चलिए, या फिर
नकारात्मकता में फिसलते रहिये। यह आभासी दुनिया भी हमारी चिरपरिचित असली दुनिया से
कुछ बहुत अलग नहीं बन सकती। ऐसे में यह नियम यहाँ भी लागू होता है। जिस तरह यहाँ
पर अपनी अच्छाइयों का ढिंढोरा पीटने का चलन जोरो पर है ,उसी तरह अपनी
बुराइयों को चाहे-अनचाहे बयाँ कर जाने की मजबूरी भी चलन में है। अपने को उच्चतर
साबित करते-करते निम्नतर स्तर पर उतरने की होड़ सी लगी है । “हम ही सही हैं” ऐसा सुनने की
आदत डाल लीजिये । या फिर “बहुत कुछ गलत” सुनने को तैयार
हो जाइये । अपनी
आवाज़ बुलंद करने को सोशल मीडिया ने मंच तो दिया , कुछ अच्छी आवाजें भी उठी , सुन
कर अच्छा लगा । लेकिन बहुतायत सुनने और समझने में अटपटी ही नज़र आई । एक बात अक्सर ही
हम अपने बड़े-बुजुर्गों से सुनते आये हैं कि यह दुनिया , कुछ अच्छे लोगों की ही
बदौलत क़यामत से महफूज़ है । जिस दिन यह चुनिन्दा अच्छे लोग “अलविदा” कह देंगे , यह
दुनिया “प्रलय” की गिरफ्त में होगी । पता नहीं क्यों , लेकिन
इस आभासी दुनिया के लिए भी मुझे यही “भ्रम” पाल लेने का मन
करता है । बस यह “कुछ” अच्छी आवाज़े इस आभासी दुनिया को बचाए हुए हैं
, वरना यह सब कुछ ख़त्म हो चुका होता । यह “भ्रम” पालने का “भ्रम” कितना उचित है
या कितना अनुचित , यह तो मै नहीं जानता । लेकिन दिल को बहलाने को तो ग़ालिब यह
ख्याल अच्छा ही है । अच्छे की तलाश में लगे सभी अग्रजों की जय हो !
Monday, February 15, 2016
हवा बिकती है , बोलो ......खरीदोगे ?
कुछ चीज़ें हमको प्रकृति ने बिलकुल मुफ्त , दिल खोल कर दी है । लेकिन हमने अपने
अप्राकृतिक व्यवहार से इनको भी अपनी पहुँच से दूर कर दिया है । हवा-पानी कुदरत की
एक अनमोल देन है । जिसके बिना हमारे अस्तित्व की कल्पना ही बेमायने है । लेकिन
मनुष्य ने अपने जायज़-नाजायज़ क्रियाकलाप से इन दोनों का अंधाधुंध दोहन ही नहीं किया
, अपने आज के व्यवसायिक हित को साधने के लिए हम सबके कल को भयावह स्थिति में
पहुंचा दिया है। महानगरो से लेकर सुदूर गाँव तक हम पानी की कमी का सामना कर रहे
हैं । सिमटते पोखर-तालाब से पानी तो गायब हुआ ही , बोतलबंद पानी की ‘नाजायज़ जरुरत’
एक ‘बड़ी ज़रूरत’ बनती चली गई । आज हम कुदरत की अनमोल लेकिन मुफ्त सौगात पानी खरीदने
को “स्वास्थ्य जागरूकता” या फिर “लाइफस्टाइल” मान कर स्वीकार कर चुके हैं । हमारे इस समर्पण ने हमारे सामने अगली चुनौती की
भूमिका बांधनी शुरू कर दी है । दुनिया के एक कोने से “हवा” बेचने की बहुत छोटी सी खबर आई । इतनी छोटी की हम सब उसको नज़र अंदाज़ कर गए ।
यहाँ पर ध्यान देने की बात यह है कि चाइना के उस शहर में में प्रदुषण का स्तर
हमारे अपने देश की राजधानी से लगभग आधा है । ऐसे में जिस खतरनाक स्थिति की ओर हम
बढ़ रहे हैं , उसकी कल्पना भी मुश्किल है । “पानी” के बढ़ते बाज़ार के बीच आने वाला कल कहीं “हवा” के संभावित बाज़ार की दस्तक तो नहीं दे रहा । जैसा कि साफ़ दिख रहा है कि पानी के मसले पर हम आज तक
नहीं संभल पाए । ऐसे में “हवा” के बारे में इस हलकी “सरसराहट” को भी हम यकीनन “हवा” में ही उड़ायेंगे । होना भी चाहिए , आखिर हम प्रगति की ओर अग्रसर हैं ।
प्रकृति का वजूद हम उस हद तक नकारेंगे , जब तक प्रकृति हमको पूरी तरह नकार नहीं
देती । नकारने की पराकाष्ठा का हमारा-आपका यह इंतज़ार शायद प्रलय की आहट के साथ
ख़त्म होगा । इसलिए आईये जब तक तो जश्न
मनाएं , या फिर कुछ सुधरने-सुधारने के लिए जुट जाएँ ।
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