सच की तलाश में शुरू हुआ सफ़र.....मंजिल तक पहुंचेगा जरुर !!!

सच की तलाश में शुरू हुआ सफ़र.....मंजिल तक पहुंचेगा जरुर !!!
AMIR KHURSHEED MALIK

Tuesday, May 10, 2016

SOCIAL v/s UNSOCIAL

आखिर परिवर्तन की इच्छा हम रखते ही क्यों हैं ? हम ऐसा दिखावा क्यों करते ही है कि हमको प्रगति चाहिए ? जबकि हमारी असल इच्छा सिर्फ और सिर्फ, नियत धारा के साथ स्वयं को बहने देने की होती है । कभी-कभी लगता है कि सिर्फ सरकारों का बदल जाना हमने विकास समझ रखा है । कभी इनको मौका देते हैं , कभी उनको चुन लेते हैं । हम पर कौन राज करेगा यह मौका हमारे पास है , लेकिन वो क्या करेगा , यह तय करने की समझ अभी हम पैदा नहीं कर पाए हैं ।
सामाजिक सशक्तिकरण के प्रयास तो हम करना भी नहीं चाहते , जो कर रहे हैं उनको समर्थन देने का नैतिक दायित्व भी हम निभाना नहीं चाहते । प्रकृति के साथ हुए दुराचार से निर्लज्ज आनंद की अनुभूति तो ग्रहण कर ली । अब दंड भोगने का समय आया तो आरोप-प्रत्यारोप में ही उलझा दिया । हमने तो सुधार की तरफ क़दम बढ़ाये नहीं , जो करने चले , उनको भी सिरफिरा समझ लिया । आखिर सिर्फ राजनीतिक समझ ही समझदारी का पर्याय क्यों बन गई है ? किसने किसको पछाड़ा , किसने ज्यादा भ्रष्टाचार किया , जैसे विषय ही “सोशल मीडिया” कहलाने वाले मंच पर भी #ट्रेंड बनते हैं । समाज को दिशा दे सकने लायक विषय यहाँ “अनसोशल” समझ लिए जाते है । सत्ताधारी एवं विपक्ष के पैरोकारों की तो लम्बी सूची यहाँ नज़र आती है , लेकिन अपने समाज के ही लिए दो शब्द भी बहुत भारी बन जाते हैं । अभी किसी माननीय को कुछ कह के तो देखिये , मधुमक्खी के छत्ते से हुआ आक्रमण आपको लहुलुहान कर देगा । लेकिन कभी किसी सामाजिक मुद्दे पर जोर लगा के देख लीजिये । अज़ब सी अस्पर्श्यता का बोध आपको सहना पड़ेगा ।

Tuesday, May 3, 2016

बेशर्म राजनीति

स्वस्थ्य लोकतंत्र के लिए बेहतर होता कि भारतीय राजनीति जाति-धर्म, परिवारवाद, क्षेत्रवाद आदि से जुड़े पारंपरिक तिकड़मों में उलझी ना रह कर महंगाई, भ्रष्टाचार, गरीबी-बेरोजगारी, विकास , शिक्षा आदि आम आदमी से जुड़े मुद्दों पर चर्चा करती । जिसकी कमी हमेशा नज़र आई है । दरअसल कई सुधारों के बाद भी अभी तक भारतीय जनमानस स्वयं के हित के लिए उतना जागरूक नहीं हो पाया है । आज भी हम ज़हरीले बयानों के ज़रिये ध्रुवीकरण की कोशिश हो , या बेहूदा बयानों से किसी के ज़ख्मों पर नमक छिड़कने की हरकत हो , जाने-अनजाने आसान शिकार बनते ही हैं । उकसाने की यह कोशिशे लोकतंत्र की मूलभावना के खिलाफ है । लेकिन अफ़सोस , वोट के फायदे का गणित , सही-गलत के आंकलन को हमेशा बौना साबित करता आया है । रही सही कसर चैनल की ब्रेकिंग न्यूज़ की लगातार चिल्लाती आवाज़ पूरी कर देती हैं । क्या इन नेताओं का मकसद सिर्फ दलीय राजनीति का परचम फहराना ही रह गया है ? हमारे राजनीतिक दल सिर्फ सत्ता के ख्वाब पाल कर जायज़-नाजायज़ के फर्क को अनदेखा कर हर रास्ता अपनाने को तैयार हैं । देश को रचनात्मक प्रयासों की जरुरत है , ना कि ज़हर बूझे बयानों की । नफरत को तो इन ज़हरीले बयानों से हवा दी जा सकती है , तरक्की को नहीं । विकास ,अमन और चैन के दरमियाँ ही पनप सकता है , ज़हरीले बयानों के बीच नहीं ।