सच की तलाश में शुरू हुआ सफ़र.....मंजिल तक पहुंचेगा जरुर !!!

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AMIR KHURSHEED MALIK

Friday, March 13, 2015

दामोदर स्वरूप 'विद्रोही' : वीर रस के कालजयी रचनाकार

 
शाहजहाँपुर को गर्व है कि अनगिनत शहीदों को देश के लिए समर्पित करने वाली उसकी भूमि ने साहित्य जगत के विशिष्ठ हस्ताक्षरों को भी जन्म दिया है । ऐसे ही एक सशक्त हस्ताक्षर विख्यात कवि दामोदर स्वरूप 'विद्रोही'  जी अब हमारे बीच नहीं है,परन्तु उनके क्रांतिकारी तेवरों वाली रचनाओं से हिंदी साहित्य जगत अभिभूत है ।
"मैं लिख न सका कुछ भी रिसालों के वास्ते,
उत्तर न बन सका हूँ सवालों के वास्ते।
लेकिन सियाह रात जब छायेगी मुल्क पे,
मेरी तलाश होगी उजालों के वास्ते।"
दामोदर स्वरूप 'विद्रोही'  का जन्म 2 अक्टूबर 1928 को शाहजहाँपुर जनपद की पुवायाँ तहसील के ग्राम मुड़िया पवार में मुरारीलाल गुप्त के घर हुआ। बचपन में ही माँ का साया सर से उठ गया , उधर अंग्रेज़ों के खिलाफ बगावत की चल रही हवा के चलते उनके पिता को भी भूमिगत होना पड़ा । ऐसे में अपने जीवन की राह उन्होंने भी क्रान्ति की दिशा में ही मोड़ ली ।अपना उपनाम विद्रोही रखने के साथ ही उन्होंने जनजागरण की कवितायें सुनानी शुरू कर दी । परेशानियों से जूझने के बावजूद उन्होंने शिक्षा ग्रहण करना जारी रखा ।एम.ए. की शिक्षा प्राप्त करने के बाद उन्होंने नौकरी करनी शुरू की , पर समझौता उनके लिए सहज नहीं था , परिणामस्वरूप त्यागपत्र देना ही उन्हें ठीक लगा । नौकरी को ठोकर मारने के बाद उनका लेखकीय सफ़र और भी ज्यादा प्रभावी होता चला गया । एक लम्बे समय तक मंच पर वीर रस के प्रतिष्ठित कवि के रूप में उन्हें जाना गया ।हालांकि उनके लिखे गीत ,ग़ज़ल,और मुक्तक भी अपनी छाप बखूबी छोड़ जाते थे । उनके द्वारा किये गए व्यवस्था और अत्याचार पर प्रहार कवि सम्मेलनो में तालियों की गडगडाहट बटोरने में सदा कामयाब रहे । "दिल्ली की गद्दी सावधान" नामक अपनी रचना से पूरे देश में चर्चित हुए विद्रोही जी निजी जीवन में भी गलत को गलत कहने का साहस दिखाते रहे ।उनके इस गुण को गीतकार अजय गुप्त ने अपने शब्दों में संजोते हुए कहा था कि  "गर चापलूस होते तो पुरखुलूस होते, चलते न यूँ अकेले पूरे जुलूस होते।"
राष्ट्र के लिए अदभुत अनुराग उनकी विशेषता थी । वो समय के साथ निष्ठाएं बदलने के सख्त खिलाफ थे । उनकी कविताओं में भी यह बखूबी नज़र आती है ।
"बहक जाये हवा के साथ ही जब राष्ट्र का चिंतन,
जहाँ का बुद्धिजीवी स्वार्थ-सुविधा में भटकता हो।
तो ऐसा व्यक्ति कवि चिंतक मनीषी हो नहीं सकता,
कि जिसका शब्द दुविधा की सलीबों पर लटकता हो।"
उनकी प्रमुख रचनाओं में दिल्ली की गद्दी सावधान (आग्नेय कवितायें),गुलाम शैशव (प्रारम्भिक काल की कवितायें),मेरे श्रद्धेय (महापुरुषों पर कवितायें),समय के दस्तावेज (इतिहासपरक रचनायें),हार हमारी जीत तुम्हारी (गीत संग्राह),त्रिधारा (गजल, मुक्तक व छन्द),कसक (करुण काव्य), दीवार के साये में (आत्मकथा) से उनके रचना संसार की व्यापकता का अंदाजा होता है। आदर्श श्रीवास्तव ने दामोदर स्वरूप विद्रोही : व्यक्तित्व एवं कृतित्व (वीर रस, राष्ट्रीयता तथा मंच के विशेष संदर्भ में) विषय पर  डॉ॰ एम० आर० खान आफरीदी के निर्देशन में पी०एचडी० की उपाधि प्राप्त की। विद्रोही जी को साहित्य भूषण, (उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ)निराला पुरस्कार, (रायसेन-मध्य प्रदेश),सुमन पुरस्कार, (उन्नाव), भगवती चरण वर्मा पुरस्कार, (सफीपुर उत्तर प्रदेश),राजर्षि पुरुषोत्तमदास टण्डन जन्मशती सम्मान, राष्ट्र्भाषा हिन्दी प्रचार समिति(मुरादाबाद),शान्ति कुंज रामाश्रम का राजहंस सम्मान,और जनपद रत्न,( अटल बिहारी वाजपेयी जन्म-दिवस समारोह समिति, शाहजहाँपुर) सहित सैकड़ों पुरस्कार प्राप्त हो चुके हैं। लेकिन इन सम्मानों से कहीं अधिक महत्वपूर्ण उनके चाहने वालों का वह सम्मान है जो वो अपने प्रिय कवि से करते आये हैं , और आगे भी करते रहेंगे । 11 मई 2008 को वो हम सबको छोड़ कर चले गए । उनकी कमी तो पूरी नहीं हो सकती , परन्तु उनका समर्द्ध रचना संसार हम सबके लिए अनमोल धरोहर है ।   उनके बेटे विवेक गुप्ता ने उनकी याद में विद्रोही स्मृति न्यास के तत्वाधान में प्रति वर्ष दो अक्टूबर को शाहजहाँपुर के गान्धी भवन में समारोह करके रुहेलखण्ड विश्वविद्यालय से एम०ए० (हिन्दी) में सर्वोच्च अंक प्राप्त करने वाले विद्यार्थी अथवा अखिल भारतीय कवि सम्मेलन का आयोजन करके किसी एक कवि को विद्रोही स्मृति सम्मान दे रहे हैं ।इससे हम सबके बीच विद्रोही जी की मौजूदगी को जीवंतता मिल गई है। उनकी रचना देखिये ......

कुछ लोग जी रहे हैं यूँ आचरण बदलकर, शैतान पुज रहे हैं ज्यों आवरण बदलकर! 
कोई न अन्यथा ले मेरा सहज समर्पण, रख दूँगा एक पल में वातावरण बदलकर!
ऐसे भी हैं यहाँ कवि लिखकर के एक कविता, वर्षों सुना रहे हैं कुछ उद्धरण बदलकर!
अब इनको क्या कहूँ मैं जनता 'जनार्दन' है, संध्या उठा के लाये नव जागरण बदलकर! 
गीतों के पद ढले हैं संगीत के सुरों में, पाणिनि का श्राद्ध होता है व्याकरण बदलकर! 
भगवान मौत देना सम्मान वह न देना, स्वीकारना पड़े जो अन्त:करण बदलकर!



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